ड़क किनारे खूब सारे रंग नज़र आये… लाल, पीला, हरा, काला। थोड़ी और पास गयी तो पता चला मूर्तियाँ (moortiyan) थीं। शायद उन रंगों का ही जादू था जिसने मुझे रोक लिया…
शाम के पांच बज रहे थे। मैं देहरादून से ऋषिकेश की तरफ़ लौटती सड़क पर स्कूटी दौड़ा रही थी। बहुत सुंदर था ये दोनों तरफ़ जंगल वाला रास्ता और ये शाम। वैसे तो मैं हमेशा नए गाने सुनती हूँ लेकिन आज स्कूटी रोककर ये सदाबहार गाना सर्च किया था। हैंडल पर लटकते ब्लूटूथ स्पीकर में किशोर कुमार की आवाज़ में अब वही गाना रिपीट पर बज रहा था – ज़िन्दगी इक सफ़र है सुहाना, यहां कल क्या हो किसने जाना…
ऋषिकेश से करीब दस किलोमीटर पहले एक कस्बा पार करते ही मुझे अपने सफ़र का सबसे सुहाना दृश्य दिखा। सड़क किनारे खूब सारे रंग नज़र आये… लाल, पीला, हरा, काला। थोड़ी और पास गयी तो पता चला मूर्तियाँ (moortiyan) थीं। शायद उन रंगों का ही जादू था जिसने मुझे रोक लिया… मैं स्कूटी पर बैठी बैठी ही उन मूर्तियों को देख रही थी। पेड़ के पास लकड़ियाँ रोपकर उन पर नज़र से बचाने वाले मुखौटे टाँगे गए थे, एक तरफ राजस्थानी औरतों और पुरुषों के भी मुखौटे। नीचे ज़मीन पर भी कुछ मूर्तियाँ रखी थीं – मां सरस्वती की मूर्ति, गणेश जी की मूर्ति, और कई छोटी बड़ी मूर्तियाँ।
मैं सोच ही रही थी फोन निकालूं और फोटो खींच लूं। लेकिन तभी मेरी नज़र वहाँ स्टूल पर बैठे आदमी पर चली गयी, इस छोटी सी दुकान का मालिक वही था। वो उठकर मेरे पास चला आया।
“वेलकम टू ऋषिकेश मैडम! यहां से सिर्फ़ 10 किलोमीटर बचा है… राम झूला, लक्ष्मण झूला, रिबर राफ्टिंग सब मिलेगा मैडम… हैप्पी जर्नी!” मैं मुस्कुराकर आगे बढ़ने वाली थी कि वो बोला – “बताइए क्या दिखा दूं?”
मैं मुस्कुरा दी। ऋषिकेश जैसी जगहों पर गाइड्स का मिलना और रटे रटाए तरीके में ये सब बोलना नई बात नहीं। लेकिन किसी मूर्ति बेचने वाले का ये अंदाज़ एकदम नया था।
अब तक मैं सोच रही थी कि सिर्फ़ तस्वीर लूंगी और आगे बढ़ जाउंगी। लेकिन मूर्तिवाले ने जिस तरीके से पूछा, मैं मना नहीं कर पाई। मैं स्कूटी से उतर गयी।
मैंने एक सरसरी नज़र सब मूर्तियों पर डाली और काले रंग वाले मुखौटे की तरफ़ इशारा करके पूछा – “ये कितने का है?”
“तीन सौ का मैडम…”
मैं कुछ नहीं बोली। शायद उसे मेरे चेहरे से लगा कि मुझे उसका भाव पसंद नहीं आया। वो दूसरी मूर्तियों की तरफ़ इशारा करते हुए बोला – “कोई बात नहीं मैडम, आप ये देख लीजिए… ये हम ख़ुद बनाते हैं, इनका सही से लगा देंगे…”
“अच्छा! आप ख़ुद बनाते है?” मैंने पूछा।
“हां! ये सब हमने बनाई है…”
वो अपनी बनाई मूर्तियों से धूल साफ़ कर रहा था। टेराकोटा से बनी थी ये मूर्तियां (moortiyan)… हर आकार की, हर रंग की। और इतना बारीक, इतना सफ़ाई वाला काम।
“आप कहां से हैं?” मैंने पूछा।
“राजस्थान से…” उसने कहा।
“मैं भी!” मैं झट से बोल पड़ी।
“अच्छा!” वो बोला।
मैंने फिर पूछा –
“तो आप यहां मूर्तियाँ बेचने आये हैं? इतनी दूर?” मैं एक ही पल में उससे ऐसे बात करने लगी थी जैसे कोई अपने ही गांव, अपने ही मोहल्ले का मिल गया हो।
वो भी बड़ी सहजता से सब बताने लगा। उसने बताया कि वो यहां पिछले पच्चीस साल से रहता है। पूरा परिवार, उसकी दो बेटियां और उसकी पत्नी सब मिलकर मूर्तियां बनाते हैं। जैसे ही उसने बताया कि वो पाली से है, मेरे मन में पहला नाम आया महाराणा कुम्भा का। हमेशा इतिहास की किताब में पढ़ा था कि मेवाड़ के इस राजा ने कलाकारों को ख़ूब बढ़ावा दिया था। कुम्भा को प्रेम था… कला से, कलाकारों से। कीर्ति स्तम्भ, कुम्भलगढ़, अचलगढ़… महाराणा कुम्भा ने अकेले राजस्थान में करीब 32 किले व दुर्ग बनवाये थे। आज अगर राजस्थान शिल्पकला में इतना समृद्ध है तो उसका श्रेय महाराणा कुम्भा को ही जाता है।
“तो आप ये सारी मूर्तियां (moortiyan) ख़ुद बनाते हैं?” मैंने फिर पूछ लिया।
“हां इन काले वाले मुखौटों को छोड़कर…” वो बोला।
“ये क्यूं नहीं?”
“इनके सांचे कलकत्ता में मिलते… बहुत पैसे लगते, आसानी से देते भी नहीं वो लोग…”
“अच्छा?” मैंने हैरानी से पूछा। वो बोला – “उनको भी तो डर होगा ना… सब बनाने लगे तो उनकी मूर्तियां नहीं बिकेंगी…”
“हां ये तो है…” मैंने हामी भर दी।
“वैसे भी कलकत्ता भोत दूर है!” उसने हाथ से किसी दिशा में इशारा किया।
“अच्छा?” मुझे हंसी आ गई।
“हां… मैं कभी नहीं गया… गुजरात गया हूं बस! वहां भी बहुत मूर्ति बनाने वाले हैं… अच्छा बाज़ार है…”
“मैं तो वहां भी नहीं गई…”
मैंने कहा तो वो हंस दिया।
“इस बार तो सब बनाकर ही रखा है बस… बिका तो कुछ नहीं…” दो पल पहले हंसी से चमकती उसकी आंखें अचानक उदास हो गई थीं। इस साल ना गणेश चतुर्थी उस धूमधाम से मनाई जा सकी, ना नवरात्रि, ना दशहरा… यही तो मौके होते होंगे जब इन मूर्तिकारों को बड़े ऑर्डर मिलते होंगे।
“तो कौनसी मूर्ति बांध दूं?” उसने फिर पूछा।
मैं अनमनी हो गयी… न मना कर पा रही थी और न मूर्ति ले सकती थी। स्कूटी पर अकेले कैसे लेकर जाती मूर्ति?
मैंने सारी मूर्तियों पर नज़र डाली और एक सबसे छोटी गणेश जी की मूर्ति की तरफ इशारा करके कहा – “ये वाली!”
“हाँ ये आपके बस्ते में भी आ जाएगी…” उसने कहा और वो मूर्ति अखबार में लपेटने लगा। उसकी बेटी पास खड़ी मुस्कुरा रही थी। मैं उनकी ख़ुशी देखकर सोच रही थी कि काश आज भी कोई महाराणा कुम्भा होता, जो सहेज लेता इन कलाकारों को, इनकी कला को, इनकी खुशियों को। आसान नहीं होता होगा न अपने शहर से इतनी दूर आकर बसना, दिन भर राह ताकना कि सड़क से गुजरते इतने लोगों में से कोई तो रुके!
“ये लीजिए…” उसने मुझे मूर्ति थमा दी।
मैंने पैसे थमाए और कहा – चलती हूं…
जैसे सच में किसी अपने से मिली थी, अपने गांव के किसी आदमी से और विदा लेना ज़रूरी है।
स्कूटी थोड़ी ही आगे बढ़ी होगी कि पीछे से उसकी आवाज़ आई। स्कूटी की आवाज़ के बीच मैं ठीक से सुन नहीं पाई। उसने थोड़ी ज़ोर से पूछा – “आपणो गाम किस्यो बतायो?”
मैंने भी पलटकर तेज़ आवाज़ में जवाब दिया – “ततारसर! पाली स्युं भोत दूर है…”