सुबह के पांच भी नहीं बजे होंगे, अम्मा की आवाज़ कानों में किसी आरती जैसी गूंजी और हम सारे भाई बहन अपनी अपनी आँखों पर हाथ रखे, टटोलते टटोलते घर के पूजा स्थल तक पहुँच गए।
अम्मा ने हौले हौले मन्त्र पढ़ा-
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती। करमूले तु गोविन्दः प्रभाते कर दर्शनम॥
फिर हमने अपनी आँखें खोलीं तो सामने एक सुनहरा आईना था और उसके आगे रखे थे अमलतास के पीले फूल, पीला पका आम, ककड़ी, माँ के थोड़े से गहने, केसर वाली खीर…
सभी चीज़ों का अक्स आईने में दिख रहा था, याने हर चीज़ दुगुनी। धन, संपत्ति, भाग्य, सुख- सब दुगुना।
याने सुबह सुबह आँख खोलते ही इसे देखना- सबसे शुभ –शुभ!
उसके बाद पापा ने हम सबकी मुट्ठी में पैसे रखे- जिसे मलयालम में “विशु-कईनीटम” कहते हैं।
उन नोटों और सिक्कों के जैसे जो बीते दिन मैंने मुट्ठी में बांध रखे थे वो धीरे से सरक कर मेरे सामने बिखर गए।
वो विशु का दिन था, केरला के हिन्दू मलयालियों के लिए नया साल। सूर्य राशि के पहले महीने का पहला दिन, ठीक वैसे ही जैसे बिहू, बैसाखी, चैती चाँद। बचपन में हथेली पर धरे उन दस पचास के नोट ने शायद हमारे भाग्य की रेखा इतनी गहरी कर दी कि फिर कभी कोई कमी रही नहीं। पापा के हाथ से पकड़ाये गए शगुन के उन थोड़े से पैसों के पीछे शायद यही भाव रहे होंगे।
त्योहारों पर, जन्मदिन पर अम्मा पापा के बताये उन रीति रिवाज़ों को निभाना, बिना किसी वैज्ञानिक तर्क-वितर्क के उनकी बात मान कर सुबह उठना सब कुछ अब भी जस का तस याद है।
बचपन की स्मृतियाँ भी कितनी रोशन होती हैं, एकदम चमकदार उस आईने के जैसी जो अम्मा के पूजा घर का हिस्सा थीं। जिसे वो मुलायम रेशम के रुमाल से पोंछ कर सहेजा करती थीं। वो आईना आरनमुला कन्नाडी था। मेरे पापा के गाँव की याद वाला आईना!
मलयालम में ‘कन्नाडी’ आईने को कहते हैं। और ये ‘आरनमुला कन्नाडी’एक छोटी सी मगर बहुत प्यारी जगह ‘आरनमुला’ में बनाया जाता है। आरनमुला मेरे ददिहाल ‘आइरूर’ से सिर्फ़ आधे घंटे की दूरी पर था। पम्पा नदी के किनारे थोड़ी सी बसाहट, जहाँ ओणम के समय बोट रेस हुआ करती थी। बोट रेस याने वल्लम कलि, केरल की एक बहुत प्यारी और मशहूर परंपरा!
आरनमुला कन्नाडी याने आरनमुला में बनाए जाने वाला ये आईना, ये मिरर बहुत ख़ास है। सबसे बड़ी ख़ासियत ये कि ये कांच का नहीं बना होता। ये कॉपर याने तांबा और टिन को ख़ास अनुपात में, ख़ास तापमान में मिला कर बनाया एलॉय याने मिश्र धातु है। ये आईना अष्टमांगल्यम याने आठ धातु के पात्रों में एक होता है। ये आठ वस्तुएं पूजा और शादी-ब्याह का बहुत ज़रूरी हिस्सा हैं। हमारे घर के कई सारे पीतल के बर्तनों में ये भी शामिल थे। पापा थोड़े थोड़े समय में उन बर्तनों को नीबू-इमली-नमक से चमकाया करते थे… और हँस कर कहते ‘तुम लोगों के आने वाले दिन चमका रहा हूँ।‘ शायद हर पिता ऐसा ही करते हैं… आईना, अष्टमांगल्यम ये सारे तो बस बहाने हैं।
मेरे दादा बताया करते थे कि इस आईने की कथा सदियों पुरानी है। आरन्मुला के पार्थसारथी मंदिर में तमिलनाडु के तिरुनलवेली से आठ कारीगर बुलवाए गए थे जो मंदिर में भगवान के गहने, उनके मुकुट, बर्तन वगैरह बनाते थे। उसी दौरान उन्होंने ये चमकदार, आईने जैसा बिंब बनाती मिश्र धातु खोजी। कई कई बार अलग अलग अनुपात मिलाकर एक सही मात्रा तय की गयी जो एकदम शानदार आईने की तरह चमकने वाली फिनिश देती थी। तब से अब तक पीढ़ियों से ये कला उनका परिवार आगे बढ़ा रहा है और उस चमक का राज़ उन्होंने अपने ही कुल में संजोये रखा है ताकि उसकी गरिमा बनी रहे| कच्ची मिट्टी के साँचें में गढ़ कर, हाथ से तराशे उस आईने को मशीनों की सख्ती से बचाए रखा है उस परिवार ने। जैसे शायद माँ बचाती हैं अपने कंगन बेटियों के लिए, या शायद पिता बचाते हैं कुछ नायाब किताबें, अपने हाई स्कूल का पेन, या…या शायद अपनी पहली स्कूटर का रियर व्यू मिरर। अतीत में झाँकने के बहाने, छोटे-छोटे कारण, हम वर्तमान में इकट्ठे करते रहते हैं…करना ही चाहिए।
ये किस्सा बताते हुए दादा जी, जिन्हें हम अप्पुपन कहते थे, उनकी भूरी सी आँखें चमक जाती थीं। उनके कानों में डला सोने का महीन तार ज़रा सा झूल जाता। मैं उनकी खुरदुरी हथेलियाँ थाम लेती। वही चमक मुझे अपने पापा की आँखों में दिखी थी जब बरसों बाद वही किस्सा वो अपने नाती पोतों को सुना रहे थे। मैंने तब उनकी भी हथेलियाँ थामीं जिनका स्पर्श अब भी मैं महसूस करती हूँ। गालों पर लुढ़क आये मेरे आंसुओं को मैं नहीं पापा की उँगलियाँ पोंछती हैं…आज भी।
कितना प्यारा एहसास है ये कि पीढ़ियों तक एक ही कहानी चलती चली आती है, वैसी ही गर्माहट लिए, उतनी ही नरमाई समेटे… बस ज़रा सी बुनाई में फ़र्क आ जाता है। हम कभी ध्यान भी नहीं देते हैं लेकिन अक्सर कोई वस्तु, कोई चीज़, कोई महक, कोई जगह, किस्से कहानियों की रीढ़ बनती हैं, याने जिसे हम प्लाट कह सकते हैं। और यही चीज़ें धरोहर बन जाती हैं।
गर्मियों की छुट्टियों की यादें, तीज त्योहारों की यादें केरल के उस छोटे से गाँव के घर की हर बात ज़हन में हैं। वहां रह कर खाए पके हुए पीले कटहल का मीठा स्वाद, नर्म मुलायम नारियल का गले से गटक जाना और वहां की मिट्टी की गीली सौंधी महक… सब आज भी जस का तस है। दादा जी और फिर पापा की सुनाई कहानियों के पन्ने आज भी चमकदार हैं, पापा के उस अरनमुला कन्नाडी याने आईने की तरह। एक आईना मेरे पास भी है उस परंपरा की निशानी के तौर पर, मेरी दादा और पापा अम्मा की सुनाई कहानियां कहता है वो आईना। उसमें झांकते अपने अक्स में मुझे सबका हाथ अपने सिर पर रखा नज़र आता है…
आरनमुला मिरर अब विदेशों तक भी एक्सपोर्ट होता है। लन्दन के ब्रिटिश म्यूज़ियम में भी इसने जगह पायी है। एक हथेली बराबर आईने की कीमत कोई चार-पांच हज़ार तक होती है, जिसके पीछे इसके बनाए जाने की कड़ी मेहनत है, सदियों से बचाई परंपरा का मोल भी शामिल ह