उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान : सरस्वती का वो उपासक जिसकी कोई नमाज़ नहीं छूटी

बिस्मिल्लाह खान को गए हुए एक दशक से ज्यादा हो गए, लेकिन आज भी जब शहनाई का ज़िक्र होता है तो अपनी आंखों से खेलते हुए मासूमियत से शहनाई बजाते हुए उनकी तस्वीर उभर आती है। बिस्मिल्ला खां कहते थे कि शहनाई ही उनकी बेगम है और वही उनकी मौसिकी। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का जन्म बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को एक मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खां और मिट्ठन बाई के यहां हुआ था। बिहार के डुमरांव के ठठेरी बाजार के एक किराए के मकान में पैदा हुए उस्ताद का बचपन का नाम क़मरुद्दीन था। कहा जाता है कि उनके जन्म के बाद उनके दादा रसूल बख्श ने उन्हें पहली बार देखते ही \”बिस्मिल्लाह! नाम से पुकारा, जिसका अर्थ था अच्छी शुरुआत और यही नाम ता-उम्र रहा।

दी मैस्ट्रो फ्रॉम बनारस की लेखिका जूही सिन्हा उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बताते हैं।बिस्मिल्लाह खान से बड़ी हिंदू-मुस्लिम एकता की कोई तस्वीर हो ही नहीं सकती। खां साहब वो शख्स थे जिसके लिए जितनी अहम उनकी नमाज़ थी उतनी ही सरस्वती की उपासना। वो बिल्कुल सादा मिज़ाज थे। जूही सिन्हा, बिस्मिल्लाह खान पर लिखी The Maestro from Banaras नाम की किताब में कहती हैं
\”ताउम्र उन्होंने अपने कपड़े ख़ुद धोए और वो हमेशा बिना प्रेस किए हुए कपड़े पहनते थे। उनके कमरे में एक चारपाई और बिना गद्दे वाली कुर्सी के अलावा कुछ नहीं था। उन्होंने कभी कार नहीं ख़रीदी और हमेशा रिक्शे से चले। उन्होने शराब कभी नहीं पी, हाँ दिन में विल्स की एकाध सिगरेट ज़रूर पी लिया करते थे\”।

सारे तो नहीं, लेकिन बहुत सारे मुसलमानों में एक धारणा है कि संगीत हराम है। हिंदी के कवि, संपादक और संगीत के जानकारी यतीन्द्र मिश्र ने बिसमिल्लाह ख़ान से हुई मुलाकात के दौरान उनसे इस बारे में सवाल किया था। इस सवाल के जवाब में बिसमिल्लाह ख़ान ने यतीन्द्र मिश्र को वही जवाब दिया, जो उन्हें उनके गुरू ने बताया था। यह पूरा क़िस्सा आप यतीन्द्र की ज़बानी इस वीडियो से जान सकते हैं। गांव कनेक्शन के नए शो \’यतीन्द्र की डायरी\’ के ऐपिसोड में

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब का किस्सा || Yatindra Ki Diary
1947 में जब भारत आज़ाद होने को हुआ तो जवाहरलाल नेहरू का मन हुआ कि इस मौके पर बिस्मिल्लाह ख़ान शहनाई बजाएं। स्वतंत्रता दिवस समारोह का इंतज़ाम देख रहे संयुक्त सचिव बदरुद्दीन तैयबजी को ये ज़िम्मेदारी दी गई कि वो खाँ साहब को ढ़ूढें और उन्हें दिल्ली आने के लिए आमंत्रित करें। खाँ साहब उस समय मुंबई में थे, उन्हें हवाई जहाज़ से दिल्ली लाया गया और सुजान सिंह पार्क में ठहराया गया। वो खुश तो थे लेकिन उन्होंने पंडित नेहरू से कहा कि वो लाल किले पर चलते हुए शहनाई नहीं बजा पाएंगे। नेहरू ने उनसे कहा, \”आप लाल किले पर एक साधारण कलाकार की तरह नहीं चलेंगे, आप आगे चलेंगे. आपके पीछे मैं और पूरा देश चलेगा\” बिस्मिल्लाह खाँ और उनके साथियों ने राग काफ़ी बजा कर आज़ादी की उस सुबह का स्वागत किया था। इस दिन के ठीक पचास साल बाद यानि 1997 में जब देश आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मना रहा था तो बिस्मिल्लाह ख़ाँ को लाल किले की प्राचीर से शहनाई बजाने के लिए फिर बुलाया गया।

 

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