मैं स्वर्ग के बहुत नजदीक तक गया, महादेव से मिलकर उनका आशीर्वाद लिया और वापस आ गया .
तड़के सुबह 4 बजे ही घर में सब उठ चुके थे और अपनी अपनी तैयारियों में लग गए और आखिर तैयारी हो भी क्यों ना इतने वर्षों में आखिरकार महादेव का बुलावा जो आया था। जी हां तैयारी हो रही थी बाबा रुद्रनाथ के धाम जाने की। कभी कभी अचंभा भी होता था कि इतने वर्षों तक चमोली में निवास करने के उपरांत भी आज से पहले कभी रुद्रनाथ जी के दर्शन हेतु नहीं जा पाए परंतु आज मौका था।
सुबह चमोली से यात्रा शुरू हुई और कुछ ही देर में हम थे रुद्रनाथ के पैदल मार्ग के शुरुआती स्थान सग्गर में। कोई कहता था कि यहां से रुद्रनाथ 22 किलोमीटर पैदल है तो कोई 24 तो कोई 26 पर वास्तव में कितना चलना पड़ता है ये एक रहस्य ही था। सग्गर में वन विभाग की चौकी में बैठे फॉरेस्ट गार्ड ने जब साथ ले जा रहे प्लास्टिक का विवरण पूछा तो आश्चर्य भी हुए और अच्छा भी लगा कि वास्तव में पहली बार उच्च हिमालयक्षेत्र में इन चीजों का ध्यान रखा जा रहा है।
खैर बस फिर बिना देर किए हुए सुबह 7 बजे हर हर महादेव के उदघोष के साथ हम 5 लोगों ने यात्रा शुरू कर दी। शुरुआत में ऐसा लगा मानो बस पूरे मार्ग में हम ही लोग हैं परन्तु जैसे जैसे हमारी गति बढ़ी हम आगे बढ़े अन्य लोग भी मिलते रहे और कुछ देर बाद पीछे छूटते रहे। सग्गर गांव के ऊपर बने प्रतीक्षालय को ज्यों ही हम पार करके आगे बढ़े हम सीधे जंगल में प्रवेश कर गए। जंगल की सुंदरता ऐसी कि उसका शब्दों में वर्णन कर पाना संभव नहीं लगता। बांज बुरांश के जंगल के बीचों बीच जाता हुए रास्ता अनेक गदेरे, पानी के धारे, जंगली झाड़ियां, चिड़ियाएं सब आपस में एक ऐसे अनदेखी शक्ति से जुड़े हुए की हजारों वर्षों से सभ्य होने का दावा करने वाला मनुष्य भी इसका पता ना लगा सके। इसी जंगल में कुछ देर चलने के बाद हम जंगल के बीचों बीच बसे पुंग बुग्याल पहुंचे। वह बुग्याल छोटा अवश्य था परन्तु उसकी मखमली घास में पड़ी सुबह की ओंस और गुनगुनी धूप मानो अभी तक की सारी थकान को दूर कर रही थी व आगे आने वाली भीषण चढ़ाई हेतु ऊर्जा भर रही थी। और बस इसी जगह से हमें हमेशा अपने स्मार्टफोन से बांधे रखने वाले नेटवर्क ने भी इसके आगे साथ देने से मना कर दिया। अब हम पूर्णतः एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करने जा रहे थे जिसके लिए हम सभी कभी ना कभी लालायित जरूर हुए होंगे।
सफर आगे बढ़ा और अब इस यात्रा का वह दौर आने वाला था जब महादेव आपकी शारीरिक,मानसिक व आध्यात्मिक शक्ति की परीक्षा लेने वाले थे – चक्रधार की चढ़ाई। अपने सभी मित्रों से इसके बारे में सुना अवश्य था कि कैसे इसे याद करना आज भी किसी के हौसले पस्त करने के लिए काफी है परंतु वास्तविकता तो हमे स्वयं इस पर चढ़ाई कर के ही पता चल सकती थी। जैसे जैसे हम ऊपर चढ़ते जा रहे थे चढ़ाई और दुष्कर होती जा रही थी परन्तु जिस कमर तोड़ थकान की बात सब करते थे उसका एहसास नहीं हो रहा था। पल पल बदलता मौसम, कभी घना कोहरा, कभी खिली धूप, नीचे सग्गर और गंगोलगांव का मनोरम दृश्य। ऐसा लग रहा था मानो हर बढ़ते कदम के साथ क्षितिज का दायरा हमारे लिए बढ़ता ही जा रहा हो। सुदूर ग्रामीण इलाके भी अब दिखने शुरू हो चुके थे। परंतु अब इस दुष्कर चढ़ाई का कोई अंत नजर नहीं आ रहा था। हम कुछ देर चलते, बैठते, साहस बटोरते और फिर महादेव का नाम ले चल पढ़ते। तभी अचानक एक धार पर पहुंच कर घने कोहरे के बीच हमे कुछ कुछ मैदान जैसा दिखाई दिया धीरे धीरे हम आगे बढ़े कोहरा भी हटता गया और तभी एक चाय की दुकान दिखी जिस पर लिखा था ल्यूटी बुग्याल। एक पल को जान में जान आ गई क्योंकि ऐसा सुना था कि भीषण चढ़ाई बस यही तक है। अब हम इतनी ऊंचाई पर थे कि ऊंचे पेड़ों का स्थान अब छोटे छोटे बुरांश के वृक्षों ने ले लिया था। बुग्याल में बहुत सी बड़ी बड़ी गाएं घास चरती हुई नजर आ रही थी। हमने एक नजर घुमाई तो सामने अलकनंदा घाटी तक नजर आ गई। हम यहां रुके नहीं और निरंतर आगे बढ़ते रहे पर जिस चढ़ाई के लयूटी में समाप्त होने की बात ही रही थी वह तो और भी खतरनाक होती जा रही थी। अब यह प्रश्न बार बार मन में कौंध रहा था कि आखिरकार पनार कब आयेगा। अपनी धुन में चलते चलते तभी अचानक हमे एक पीले रंग का झंडा दिखाई दिया। कोहरा घना था इसलिए उस धार के आगे क्या था यह समझ नहीं आ रहा था। जैसे ही हमने वह धार पार करी सामने का दृश्य देख कर चढ़ाई की सारी थकान सारा दर्द सब एक पल में गायब हो गया। सामने था पनार बुग्याल। वह दृश्य जिसे अब तक केवल तस्वीरों में देखा था परन्तु वास्तविकता यह थी कि उस अलग दुनिया की सुंदरता का वर्णन ना शब्दों में किया जा सकता है और ना ही कोई तस्वीर उसके साथ न्याय कर सकती है। चारों ओर फैली घास, बीच में तालाब, एक छोटी चाय की दुकान व वन विभाग की चौकी, चारों ओर आता जाता हुआ कोहरा, सारी तस्वीरों में दिखने वाला वो प्रसिद्ध कुत्ता और सुदूर ऊंची ऊंची चोटियां। पनार में हमने चाय पी और साथ में घर से लाई पूरियां खाई। आधा घंटा विश्राम करे के बाद अपनी सारी शक्ति समेटते हुए अब हमने 1 बजे आगे के लिए प्रस्थान किया। ऐसा पढ़ा था कि इसके आगे कुछ ही दूर पितृधार नामक स्थान है जहां लोग अपने पितृों के नाम पर पत्थर रखते हैं। कुछ आगे चलने पर एक ऐसा ही दृश्य दिखा हमें लगा यही पितृधार है पिता जी ने वहां पर कुछ पत्थर रखे परंतु थोडा आगे चलने पर फिर से एक ऐसी ही जगह दिखाई दी दुबारा से उस जगह पर पत्थर रखे गए। उसके बाद हम एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहां से एक ओर माता अनुसूया का मंदिर दिखाई पड़ रहा था और दूसरी ओर तोली ताल का मनोरम दृश्य। उस स्थान पर कुछ देर बैठने के बाद ज्यों ही हम आगे बढ़े फिर से भयंकर चढ़ाई शुरू हो गई। उस ऊंचाई पर अब सांस फूलने लगी थी पर महादेव का नाम लेते हुए हम आगे बढ़ते रहे। दूर से कोहरे के बीच कई झंडे दिखाई दिए ऐसा लगा मानो कोई मंदिर आ गया। कुछ देर में हम वहां पहुंचे और हंसने लगे क्योंकि वहां लिखा हुआ था पितृधार! हम इस बात पर हंस रहे थे कि इस से पहले दो बार हम पितृधार समझ कर पत्थर रख चुके थे। वो शायद इस पूरे मार्ग का सबसे ऊंचा स्थान था क्योंकि इसके बाद ढलान शुरू हो रही थी। वहीं पर किसी ने भारत का झंडा भी लगाया था। उस ऊंचाई पर भारत के झंडे को देख एक अलग जोश रगों में भर गया। इसके बाद वास्तविक पितृधार में पत्थर रख कर हम आगे बढ़ गए।
अब हमारी गति तेज़ हो गई थी परन्तु मार्ग और भी संकरा ढलान वाला ओर जटिल हो गया था। अब लाल बुरांश के फूलों की जगह बैंगनी और सफेद बुरांश के पेड़ दिख रहे थे। तेज़ी से आगे बढ़ते बढ़ते एक धार पर पहुंच कर हमारे कदम थम गए और मुंह आश्चर्य से खुला रह गया। सामने पञ्चगंगा का बुग्याल था। अपने पूरे जीवन में मैंने कभी इतना सुन्दर दृश्य नहीं देखा था। चारों ओर फैली हुई घास, उनमें चरती हुई भेड़ें, अनेक जल धाराएं और दूर दिखती हुई उच्च हिमालय की चोटियां। मन हुआ कि बस सब छोड़ कर यही रुक जाऊं पर मंज़िल यह नहीं थी। वहां पालसी लोग जो भेड़ चराते हैं उन्होंने अपना डेरा डाला हुआ था। उस ऊंचाई पर इतनी कठिनाइयों के बीच वो लोग कैसे जीवन यापन करते होंगे क्या क्या कष्ट झेलते होंगे इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है। पञ्चगंगा से हमने पीने का पानी भरा जो इतना शुद्ध था कि दुनिया का कोई तथाकथित फिल्टर उसका मुकाबला नहीं कर सकता था और शीतल इतना की आत्मा तक को ठंडक पहुंचा जाए। यहां थोडा विश्राम करने के पश्चात हम अब अंतिम गंतव्य के लिए आगे बढ़ गए। कुछ देर चलने के बाद एक स्थान पर पहुंचे जहां कुछ घंटियां लगी थी और देवदर्शनी लिखा हुआ था। इस से पहले की हम उस स्थान की महत्ता का अंदाज़ा लगाते कोहरा हटा ओर सामने दूर रुद्रनाथ महादेव के मंदिर के दर्शन हो गए तब समझ में आया कि इस स्थान को देवदर्शनी क्यों कहते हैं। उस स्थान से पूर्व कोई यह अनुमान नहीं लगा सकता कि आखिर मंदिर कहां है। सबके मुंह से बस एक ही बात निकली हर हर महादेव..भगवान भी देखो कहां जाकर बसे!!बस फिर क्या था पूरी उमंग के साथ ओम नमः शिवाय बोलते हुए हम सब मंज़िल की ओर बढ़ चले। बारिश और भी तेज़ हो चली थी पर उस से अब कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। जैसे जैसे हम पास आते गए मन में उत्साह बढ़ता गया और आखिरकार जब हम बाबा के घर के सामने पहुंचे तो हम कहां से आए थे, कितना चले, कितने कष्ट सहे, कुछ मायने नहीं रह गया। मन में बस शांति थी एक ऐसी शांति जो शायद लाख कोशिशों पर भी इंसान को ना मिल पाए। उस ऊंचाई पर पहुंच कर सारी दुनिया से अलग थलग हुए के बाद इंसान को उस वास्तविकता का एहसास होता है कि जीवन में आखिरकार क्या मायने रखता है। सुबह 7 बजे चलकर हम 5 बजे रुद्रनाथ पहुंच गए थे कितना चले इस बात से अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। शाम को उस वातावरण में भगवान की आरती देख कर मन में जो प्रसन्नता हुई उसका बखान करना असम्भव है। रात को सोने की व्यस्था मंदिर के बगल में ही एक कमरे में हुई। शरीर ऐसी स्थिति में था कि बिना बिस्तर बिना किसी सुविधा के बस एक कम्बल जो मंदिर से मिला था उसी में झपकी आ गई। रात को एक चूहा हमारे ऊपर उधम जरूर मचाता रहा। इतनी ठंड में उसका होना भी अपने आप में एक आश्चर्य था। सुबह 4 बजे उठकर भगवान को शीश नवाए। दिशाएं खुलते ही शंख की ध्वनि से भगवान को जगाया गया। सुबह उनका श्रृंगार किया गया और उसके बाद आरती। 9 बजे महादेव को हाथ जोड़ कर उनसे विदा ली और फिर से बुलाने की कामना की।
वापसी में फिर से पनार रुके उसी दुकान पर पहाड़ी चैसा भात खाया जिसके सामने 5 स्टार होटल का खाना भी पानी मांगने लगे। उसके बाद जिस चढ़ाई ने चढ़ते समय दम निकाला अब वहीं उतरते समय पैरों की हालत और खस्ता कर रही थी। आखिरकार जब हम वापस पुंग बुग्याल पहुंचे और मुड़ कर ऊपर देखा तो विश्वास नहीं हुआ की अभी हम उस ऊंचाई पर थे। थोडा देर सुस्ताने के बाद नीचे उतारना शुरू किया और कुछ देर में हम सग्गर में थे।
जब भी कभी ऐसे सफर पर में निकलता हूं तो यह सोचता हूं कि ऐसी क्या शक्ति है जो इंसान को ऐसी अद्भुत ऊंचाइयों पर जाने के लिए प्रेरित करती है? और हर बार मुझे एहसास होता है कि ऐसी यात्राओं को करने के लिए केवल शारीरिक नहीं बल्कि उस से कई अधिक मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति का होना जरूरी है। प्रकृति से प्रेम, हृदय में उमंग में में श्रद्धा और मन में उत्साह के बिना ऐसी ऊंचाइयों को नहीं छुआ जा सकता है।
घर पहुंच कर भले ही हमें हमारे पैर महसूस नहीं हो पा रहे थे परन्तु इन दो दिनों में जो कुछ भी इन आंखों से देखा व हृदय से महसूस किया वह अद्भुत, अकल्पनीय और जीवन भर अविस्मरणीय रहेगा!!
हर हर महादेव।