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मनाली

यात्राओं का सुख मुझे हमेशा अपनी ओर खींचता रहा है। मुझे अपने जीवन के तमाम बड़े आश्चर्य इन यात्राओं पर ही खड़े मिले, बाँहें फैलाए मेरा इंतज़ार करते हुए! मुझे ये बताते हुए कि बदलावों को स्वीकारना इतना भी मुश्किल नहीं…

वो जनवरी का महीना थाजब इतने सालों से भीतर पल रही इच्छा पूरी हुई… आसमान से बर्फ़ बरसती देखने की, कोई ठंडा फ़ाहा हथेली पर रखकर देर तक बस मुस्कुराते रहने की इच्छा।

मनाली के लिए चण्डीगढ़ से बस ली। यहाँ से राज्य परिवहन निगम से लेकर वॉल्वो सर्विस तक की बसों के कई कई विकल्प आसानी से मिल जाते हैं… दिन में भी और रात में भी।

मैंने जो बस ली, उसका मनाली पहुँचने का समय सुबह सात बजे का था तो मैं पूरी रात सुकून से सोई। मैं सुबह बहुत जल्दी किसी शहर में पहुँचने से कतराती हूँ, चाहे वो कोई परिचित शहर ही क्यूँ न हो। मुझे लगता है जैसे मैं उसके विराट एकांत में एक ओछी घुसपैठ कर रही हूँ। शहर को छोड़ते समय भी ऐसा ही होता है। कोई किसी को सोता हुआ छोड़कर कैसे जा सकता है!सो मैं अपनी हर यात्रा इसी तरह से करती हूँ कि जल्दी सुबह न किसी शहर से मिलना पड़े, न बिछड़ना।

कंडक्टर की आवाज़ से मेरी नींद खुली। वो अपने हिमाचली लहज़े में कह रहा था –बर्फ़ गिरी है बहुत ज़्यादा, मनाली नहीं जायेगी बस… थोड़ी देर में कुल्लू पहुँच रहे हैंकिसी को उतरना हो तो देख लेना

मैंने खिड़की से बाहर झांककर देखा, अभी तक घना अँधेरा था। अभी महज़ पांच बज रहे थे। बर्फ़ गिरने से रास्ते बंद होने की बात सुनकर बस में थोड़ी खलबली सी मच गयी। कोई अपने होटल मैनेजर को फ़ोन कर रहा था, तो कोई कंडक्टर से बार बार पूछ रहा था कि कोई तो रास्ता होगा मनाली तक पहुँचने का? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था, मैं घर से यही प्रार्थना करके तो निकली थी कि मुझे बरसती हुई बर्फ़ देखने को मिले। अब जब बर्फ़ के बरसने की खबर आई थी तो ख़ुश हो जाऊं या परेशान? थोड़ी ही देर में कुल्लू भी आ गया… आधे से ज़्यादा लोग उतर गये।ये वो क्षण था जिसमें हमें चुनना पड़ता है। सिक्का एकदम हवा में होता है… हमसे पूछा जाता है चित्त या पट? सिक्का हवा में घूम रहा है, आँखें ज़रा भी उससे हटना नहीं चाहतीं… क्या चुना जाए? विडम्बना यह है कि केवल एक चुना जा सकता है… और हमेशा आकर्षण उसी का रहेगा जो नहीं चुना। चित्त कहा तो पट का, पट कहा तो चित्त का।

और किसी को उतरना हैदेख लो भाई आगे कुछ नहीं मिलेगारास्ता एकदम बंद है…” कंडक्टर ने आख़िरी चेतावनी दी। बचे हुए लोगों में से एक आदमी और उतर गया। बस चल पड़ी, मैं अपनी जगह बैठी रह गयी।और अब सब आसान था।

बस जैसे जैसे आगे बढ़ रही थी वैसे वैसे ठंड बढती जा रही थी। मनाली का रास्ता हिमाचल के बाक़ी हिल स्टेशन से अलग है।ये सड़क उतनी संकरी नहीं है, मोड़ भी उतने घुमावदार नहीं… अँधेरा धीरे धीरे कम हो रहा था। और थोड़ी ही देर बाद मुझे बर्फ़ नज़र आई, आसमान से बरसते नन्हे नन्हे फाहे। जो थोड़ी बहुत चिंता मन में बची थी, अब वो भी दूर हो गयी।मैंने कितनी ही देर उस बर्फ़ की तस्वीरें लीं, वीडियो बनाई। फिर एकदम शांत होकर बैठ गयी। सब सहेज लेने का लालच कितना भारी होता है और कितना हल्का, कितना आसान होता है उस पल को बस जी जाना।

थोड़ी ही देर बाद एक जगह बस रुकी। कंडक्टर ने कहा बस इससे आगे नहीं जायेगी। सब बस से उतरने लगे। वहां सिर्फ़ तीन दुकानें थीं। चाय के उबलने की मीठी ख़ुशबू आ रही थी, कुछ ही दूर लोग आग से हाथ सेंक रहे थे। मेरे पास छाता नहीं था, सो मैं बस के दरवाज़े में ही खड़ी रही। जाने किस उम्मीद में। जाने क्यूँ मुझे लग रहा था कि कोई न कोई रास्ता तो निकल ही आएगा। रास्ता निकल आया। थोड़ी देर बाद मनाली तक जाने के लिए कैब मिल गयी। कैब में मेरे अलावा दो लोग और थे… एक मेरी ही उम्र की लड़की और उसका साथी। उनका होटल न्यू मनाली में था, मेरा हॉस्टल ओल्ड मनाली में। मनाली में मुख्य आकर्षण ओल्ड मनाली ही है। क्यूँ! ये मुझे वहां पहुँचकर पता चला। पेड़, पहाड़, रास्ते सफ़ेदी से ढके थे। हर ओर एकदम सन्नाटा। बस नदी की आवाज़ आती थी।मेरा हॉस्टल पुल के उस तरफ था। कैब पुल के इसी तरफ रुक गयी… आगे घुटनों तक बर्फ़ थी। कैब का उस तरफ जाना सम्भव नहीं था। मैं कैब से उतरकर हॉस्टल की तरफ बढ़ी तो कितनी ही देर पुल पर खड़ी नदी को देखती रही। देखती रही कि कितनी ख़ूबसूरती है इस दुनिया में… प्रकृति किस सीमा तक सौन्दर्य बरसाती है। देर है तो बस बाँहें फैलाकर भीग जाने की…

इस अद्भुत दृश्य को देखते हुए मैं भूल ही गयी कि मेरे पास छाता नहीं था। मैं पूरी तरह भीग चुकी थी। हॉस्टल पहुंची तो ठंड से काँप रही थी। रेगिस्तान में गर्मी, लू, आँधियाँ ख़ूब सहीं लेकिन ये ठंड… ये नयी थी मेरे लिए।

इस बार मैंने हॉस्टल में डॉर्म की बजाय कमरा बुक किया था। बिस्तर पर बैठकर, कोई मीठी सी ग़ज़ल बजाकर, हाथ में निर्मल वर्मा की कोई किताब लिए खिड़की से बर्फ़ देखने का सुख मैं किसी से बांटना नहीं चाहती थी। अकेले यात्रा करने में सबसे बड़ी सरलता यही है… हम जब जैसा चाहें, जितना चाहें उतना एकांत अपने लिए बचा सकते हैं।

उस दिन मैं शाम तक रजाई में दुबकी रही। हल्के बुखार जैसा महसूस हो रहा था। हॉस्टल में न पानी था, न बिजली। पहाड़ों पर जब बर्फ़ गिरती है, नलों में पानी जम जाता है। उस पर बिजली भी गुल!

शाम तक तबियत नहीं सुधरी। जैसे जैसे बाहर शाम का धुंधलका गहरा रहा था, मेरा मन बेचैन होने लगा था। अगर ऐसे ही बर्फ़ गिरती रही तो? पानी नहीं आया तो? मैं वापिस कैसे जाउंगी? कही मेरा यहाँ अकेले आने का फैसला ग़लत तो… मैंने ख़ुद को टोक दिया। कसकर आँखें बंद की, ख़ुद को याद दिलाया कि सब ठीक होगा, सब ठीक हो ही जाता है। जाने कब आँख लगी… रात के करीब दो बजे आँख खुली।खिड़की से बाहर देखा तो सारी थकान, सारा अनमनापन दूर हो गया। कैसी तो उजली रात थी। हर तरफ बर्फ़ से ढके, चमकते हुए पहाड़… अब सब ठीक था।मैं मन ही मन लिस्ट बनाने लगी कि सुबह क्या क्या करूंगी।

गिरती हुई बर्फ़ देखने के लिए, उसके मज़े लेने के लिए कुछ चीज़ें अनिवार्य हैं जो आपके पास होनी ही चाहिए… मोटे दस्ताने, घुटनों तक आने वाले बूट्स, छाता और जितने स्वेटर कोट एक के ऊपर एक पहन सकें, कम हैं।

सुबह मैंने हॉस्टल से निकलते ही अपनी ये सूची पूरी की और अब मैं तैयार थी इस ख़ूबसूरती में भीगने के लिए।

ओल्ड मनाली ब्रिज के पास कतारों में कई कैफ़े हैं जो मनाली घूमने आने वालों के लिए मुख्य आकर्षण है। एक से बढ़कर एक सुंदर पेंटिंग्स से सजी दीवारें, जिन पर उन्हें बनाने वाले देश विदेश के कलाकारों का नाम भी अंकित रहता है। कैफ़े के अंदर घुसते ही एक गर्म पहाड़ी ख़ुशबू आपका स्वागत करती है। अलाव में जलती हुई लकड़ियों को देखकर ठिठुरते हाथ पैर लालच से दौड़ पड़ते हैं। इन कैफ़ेज़ के पीछे से नर्मदा नदी गुजरती है। गर्म कॉफ़ी की चुस्कियां लेते हुए यहाँ जितनी देर बैठा जाए, कम ही लगता है।

मैंने उस कैफ़े में पूरी दोपहर बिता दी। मेरी नज़रें बर्फ़ और नदी को अब भी अपने जीवन के पहले आश्चर्य की तरह देख रही थीं… पीछे Beatles बैंड का गाना बज रहा था – “youmaysay I’m adreamer, But I’m not theonlyone…”

मैंने वहाँ बैठकर कुछ कहानियाँ पढ़ीं, कुछ लिखना चाहा पर नहीं लिख पाई। अक्सर जब मैं बहुत सुंदर दृश्य में होती हूँ, कुछ नहीं लिख पाती।

लंच के बाद मैं उस कैफ़े से निकली तो यूँ ही टहलती रही… मुख्य बाज़ार की तरफ़ थोड़ी दूर निकल आई। सोचा था रास्ते में एटीएम मिलेगा तो कुछ कैश निकलवा लूंगी। लेकिन बिजली अब तक नहीं आई थी। कोई भी एटीएम चालू नहीं था।मैंने अपने लिए एक छोटी सी सीख मन ही मन दोहराई कि पहाड़ी हिल स्टेशन पर आते वक्त एटीएम के भरोसे कभी नहीं रहना चाहिए।

शाम ढलते ढलते मैं हॉस्टल लौट आई थी। लेकिन हॉस्टल के रिसेप्शन पर पता चला कि मैं दिनभर जिस कैफ़े में बैठी थी, मुझे वहाँ की लाइव म्यूजिक परफॉरमेंसबिल्कुल मिस नहीं करनी चाहिए।

ओल्ड मनाली के इन कैफ़ेज़ में लगभग हर शाम लाइव म्यूजिक परफॉरमेंस होती हैं।

मैं फिर वहाँ चली आई। जगमगाती रौशनियों की परछाई नर्मदा के पानी में पड़ रही थी, रात आज भी वैसी ही थी… बर्फ़ सी उजली, ठंडी और शांत। कोई आँखें मींचे माइक के सामने गा रहा था। मुझे गीत के बोल ज़रा भी समझ नहीं आये, मैं बस गाने वाले का चेहरा पढ़ती रही। संवेदनाएं भाषा के बंधन में नहीं बंधती।

अगले दिन धूप निकली थी। दो दिन बरसी बर्फ़ के ढेर अब रास्ते से हटाए जाने लगे थे। लेकिन अब फिसलन और भी बढ़ गयी थी। मैंने आज एक दूसरे कैफ़े में कॉफ़ी पी। कॉफ़ी ख़त्म होने तक तय कर चुकी थी कि आज मुझे हडिम्बा देवी मंदिर जाना था। हडिम्बा देवी मंदिर का रास्ता मैं कल मुख्य बाज़ार की तरफ जाते हुए देख चुकी थी। थोड़ी मदद गूगल ने भी की। पैदल दो घंटे का रास्ता था, लेकिन रास्ता इतना सुंदर हो तो समय कितना भी लगे, क्या फ़र्क पड़ता है।

मैं अपना कैमरा गले में लटकाए चल पड़ी। कल तो जैसे तैसे धीरे धीरे चलकर फिसलने से बची रही, लेकिन आज दो बार पैर फिसला… बस गिरने से जैसे तैसे बच गयी। थोड़ी दूर सपाट रास्ते पर चलने के बाद मंदिर के लिए सीढियां जाती हैं। अब सीढ़ियों पर तो फिसलने से बचना और भी मुश्किल। उस रास्ते पर काफ़ी भीड़ थी, सब जैसे तैसे रेलिंग पकड़कर धीरे धीरे चढ़ रहे थे। सीढियां जंगल के बीच से जाती थीं।

दोनों तरफ़ देवदार के तिकोने पेड़ जो बर्फ़ से ढके थे। तेज़ हवा आती तो बर्फ़ का कोई बड़ा सा गोला ठप्प से जमीन पर गिर जाता। हल्की सफ़ेद ओस धूल की तरह उड़ती, दूर जंगल की गहराई से पंछियों का शोर उठता। फिर अगले ही क्षण सब शांत… मैं हर बार मंत्रमुग्ध सी हुई खड़ी रहती।

हडिम्बा देवी मंदिर पहुँचकर मैं कुछ देर वहां बेंच पर बैठी रही। उस मंदिर की अनूठी शिल्पकारी को देखती रही। यह मंदिर लकड़ी से बना है। लकड़ी पर सुंदर कारीगरी कर कलाकृतियाँ उकेरी गयी हैं। एक पल को लगता है कि घने जंगल के बीच किसी पहाड़ी परिवार का घर है… घर ही तो है, ईश्वर का। मैं अपने ख़्याल पर मुस्कुरा दी। कितनी ही देर वहीँ बेंच पर बैठी मंदिर के सामने सीढ़ियों पर खड़े होकर तस्वीरें खिंचवाने वाले ग्रुप्स को देखती रही। पहले तो तस्वीर खिंचवाने के इस उपक्रम से खीज सी हुई, फिर किसी से कहकर एक तस्वीर ख़ुद भी खिंचवा ली।

हडिम्बा देवी मंदिर के पिछली तरफ काफ़ी भीड़ रहती है। यहाँ स्केटिंग, याक राइडिंग, जंगल सफ़ारी जैसे कई एडवेंचर पर्यटकों को लुभाते हैं। मैंने सिर्फ़ एक नन्हे खरगोश के साथ तस्वीर खिंचवाई और चल पड़ी। ये वो रास्ता नहीं था जिससे मैं ऊपर आई थी। ये रास्ता मुझे गूगल ने भी नहीं सुझाया था… बस मुझे एक रास्ता दिखा, जंगल के बीच से नीचे उतरा हुआ, हवा का झोंका आने पर बर्फीली धुंध से भरता हुआ और मैं सम्मोहित सी उसी तरफ़ चल पड़ी। कुछ ही दूर चलने पर कुछ कुछ दुकानें आने लगीं… ये रास्ता थोड़े रिहायशी इलाके से होकर निकलता है। अपने घरों के सामने स्नो मैन बनाकर खेलते पहाड़ी बच्चों को देखना भी सुखद था। मैं करीब आधा घंटा ही चली होउंगी कि मैंने देखा मैं ओल्ड मनाली की उसी गली में पहुँच गयी, जिसमें मेरा हॉस्टल था! जिस जगह मैं ढाई घंटे चलकर पहुंची, वहाँ सिर्फ़ आधे घंटे में पहुंचा जा सकता था! ये रास्ता कोई मैप नहीं बता रहा था… मानचित्रों में सारे रास्ते नहीं होते, कुछ ख़ुद चलकर तलाशने पड़ते हैं।

उस शाम मैंने एक छोटे से कैफ़े में बैठकर मसाला डोसा खाया जिसमें पहाड़ी मसालों का स्वाद इतना ज़्यादा था कि ऐसा लगे ये कोई पहाड़ों का ही पकवान है।

अगले दिन आँख खुली तो बहुत चमकीली धूप निकली थी, पर्दों के बीच से मेरे कमरे में झाँक रही थी। मैंने आज दिनभर नदी किनारे बैठकर किताब पढ़ने की योजना बनाई और निकल पड़ी।

मनाली आने वालों के लिए आसपास घूमने की कई जगहें हैं… कई ट्रैक्स, झरने जैसे कि जोगिनी फ़ॉल्स, म्यूजियम, आसपास के कई गाँव और सबसे ख़ास वशिष्ठ! इस जगह की ख़ासियत यहाँ का गर्म पानी का चश्मा… जहाँ एक तरफ़ बर्फ़ पड़ रही है, वहाँ गर्म पानी का चश्मा! है न हैरानी की बात… यही प्रकृति है, पग पग पर चौंकाती हुई।

मैंने मनाली का मॉल रोड, यहाँ का म्यूजियम, मनु टेम्पल कई जगहें देखीं, कई छोड़ दीं… मैं अपनी किसी भी यात्रा पर वो यात्री बन ही नहीं पाती जो भाग भागकर सब देखना चाहता है। मैं तो बस रुक जाना चाहती हूँ… उस शहर की सबसे स्थानीय गली, मोहल्ले की ख़ुशबू अपने भीतर समेटना चाहती हूँ… और चाहती हूँ कि मैं उस शहर को पर्यटक सी न लगूं, वो मुझे अपना समझ ले। और इसके लिए ज़रुरी होता है अपनी गति, शहर की गति के बराबर रख पाना। मैंने नहीं देखा किसी पहाड़ी शहर को भागते दौड़ते हुए…

मैं क़रीब सात दिन तक मनाली में रही। अपने कमरे में बैठकर ग़ज़लें सुनना, क़िताबें पढ़ना, थोड़ी दूर टहल आना, नदी से बातें करना और देर रात तक पेड़ों की बर्फ़ को झरते हुए सुनना… कितने सुंदर थे वो दिन!

आठवें दिन तक लगभग सारी बर्फ़ पिघल चुकी थी। आशंका थी कि एक दो दिन में फिर बर्फ़बारी होगी।फिर से रास्ते बंद होने की ख़बर सुनकर मुझे लगा कि अब मुझे लौटना चाहिए। इस बार मैंने कोई बुकिंग नहीं की, सफ़र भी दिन का चुना। मैं देखना चाहती थी वो रास्ता जो इतनी सुंदर जगह तक लाता है। मनाली से वापिस चण्डीगढ़ के लिए बस मुझे बस स्टैंड से ही मिली, जिस तक ओल्ड मनाली से भी पैदल चलकर पहुंचा जा सकता है। बस में बैठने के बाद कई बार ख़्याल आया कि मैंने लौटने में कोई जल्दबाज़ी तो नहीं कर दी? मुझे थोड़े दिन और रुक जाना चाहिए था? देख आनी चाहिए थीं वो सारी जगहें जो छूट गयी थीं? लेकिन फिर लगा जो किया, सही किया… किसी शहर में एकदम मन भरने तक नहीं रुकना चाहिए, न ही एक बार में सब देख समझ लेना चाहिए।सुंदर शहरों में बार बार लौटकर आ सकने की वज़ह हर बार बचाकर ले आनी चाहिए अपने साथ…

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