दिसम्बर मेरा मनपसंद महीना है। गुलाबों का महीना…साल भर की यादों को दुहराने का महीना। आने वाले साल के लिए उम्मीद के नए बीज बोने का महीना। तो पिछले साल दिसंबर की शुरुआत कुछ यूँ हुई कि उससे बेहतर दिल कुछ और चाह ही नहीं सकता था।
सर्दी के नाज़ुक कदमों की रुनझुन के बीच एक शाम भोपाल के रवीन्द्र भवन के मुक्ताकाश मंच से मुख़ातिब थे एक बेहतरीन लेखक,शायर,गीतकार – कार्यक्रम था- मैं कोई ऐसा गीत गाऊं।
ज़ाहिर है बात Javed Akhtar साहब की हो रही है। जावेद साहब एक अलग रंग रूप में भोपाल वालों से रूबरू थे।
वो बात कर रहे थे अपने लिखे फ़िल्मी गीतों के पीछे छिपी कहानी की। और उनकी कहानी के बाद दो बेहद सुरीले गायक उन गीतों को सुना कर शाम को रूमानी बना रहे थे।
Javed Akhtar साहब का बचपन भोपाल में बीता इसलिए यहाँ के लोगों का उनसे लगाव ज़रा गहरा है और वही हाल उनका भी है।
प्रोग्राम का आगाज़ उन्होंने अपने पहले लिखे गीत की कहानी से किया। वो गीत जो उन्होंने 1981 में लिखा था क्यूंकि उसके पहले तो वो स्क्रिप्ट राइटर थे और सीता-गीता, जंज़ीर, दीवार, शोले जैसी फ़िल्में उनके नाम दर्ज़ हैं।
फिल्मों में गीत लिखने के पहले जावेद साहब कवितायें लिखा करते थे और उन्हें भी छपने के लिए नहीं भेजते थे। तो जब यश चोपड़ा जी ने अपनी आने वाली फ़िल्म के लिए उनसे गाने लिखने को कहा तो जावेद साहब थोड़ा असहज थे, और यश जी उनसे इसलिए लिखवाना चाहते थे कि फिल्म का हीरो एक पोएट, याने कवि का किरदार निभा रहा था। उस वक्त साहिर साहब की तबियत भी नासाज़ थी इसलिए जावेद अख़्तर ऑप्शन बी की तरह लाये गए। मगर जावेद साहब लिखना ही कहाँ चाहते थे! उन्होंने अजीबोग़रीब शर्तें रखीं क्यूंकि यश जी को सीधे ना कैसे करते। और यश चोपड़ा जी ने तो ज़िद्द ठान रखी थी।
बहरहाल आख़िरकार सुनने वालों एक बेहद सुन्दर गाना सुनने मिला – फिल्म थी सिलसिला और गीत था – देखा एक ख्व़ाब तो ये सिलसिले हुए…
मीटर, स्केल, गाने का कर्व जैसी अटकलों को पार करके आख़िर पटकथा लेखक, शायर, गीतकार बन गया। इस कहानी के बाद पार्थिव और जाह्नवी ने सधी हुई सुरीली आवाज़ में वो गाना भी सुनाया तो लगा शाम मुकम्मल हुई।
इसके बाद की कहानी थी एक ऐसे गीत की जो आज भी बजता है तो दिल ज़रा सा ठहर कर उसे सुकून से सुन लेना चाहता है। वो गीत था फिल्म साथ-साथ का जिसे जगजीतसिंह जी ने गया था। और बकौल जावेद साहब उन्होंने ये गीत नौ मिनिट में और पूरी तरह नशे में चूर होकर लिखा था।
तुमको देखा तो ये ख़याल आया… ज़िन्दगी धूप तुम घना साया…
हालाँकि उन्होंने अपने प्रिय श्रोताओं को ये भी बताया कि अब उन्होंने वो सारे शगल छोड़ दिए हैं। और ज़रा सी हंसी के साथ उन्होंने ये राज़ भी खोला कि नशे में कोई शायरी नहीं करता… नशे में सब अपनी तारीफ़ और दूसरों की बुराई के सिवा कुछ नहीं करते।
इन दो फ़िल्मों में बेहरतीन गीत याने जिन गीतों को पोएटिक कहा जा सकता था, लिखने के बाद इंडस्ट्री में लोगों को लगा ये हल्के फुल्के गीत नहीं लिख पायेंगे। जैसे एक ब्रांडिंग हो गयी थी। मगर फिर उन्होंने लिखा मिस्टर इंडिया का हवा हवाई लिख के सबको हैरान कर दिया और उसके गाने की शुरुआत चंद जिबरिश याने ऊलजलूल शब्दों से की लेकिन गाने ने लोगों के दिलों में अपनी मुकम्मल जगह बनायीं।
पूरे प्रोग्राम के दौरान जावेद (Javed Akhtar) साहब अपने बढ़िया सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से लोगों को गुदगुदाते रहे लेकिन मेरे कान तो अगली कहानी सुनने के इंतज़ार में थे कि कैसे बारामासा विरह गीत को ज़हन में रख कर उन्होंने तेज़ाब का एक, दो, तीन… चार पांच छःसात… गीत रचा था।
तो पूरी शाम एक से एक मीठे गीतों के बनने की कहानी सुनी फिर उन गानों को शानदार लाइव बैंड के साथ सुना।
थोड़ा झूमे… ज़रा सा गाये, गुनगुनाये भी।
‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा….’
‘मेरे मन ये बता दे तू…’
‘राधा कैसे न जले…’
‘कल हो न हो…’
गीतों और बातों का ऐसा समां बंधा कि लगा शाम ख़त्म ही न हो। अपने लिखे गीतों को सुनाने के बाद जावेद साहब (Javed Akhtar) ने बड़ी मोहब्बत से अपने बच्चों का ज़िक्र किया और फिर उनके गीत सुनवाए…
‘दिल चाहता है…’
‘कभी न बीते चमकीले दिन…’
इस मासूम सी तमन्ना के साथ शाम ख़त्म हुई… पर ख़ुमारी अब तक बाक़ी है। एक साल बीतने के बाद भी…