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ओ री ठुमरी प्यारी ठुमरी – गिरिजा देवी

वो हरदिल अज़ीज़ हैं, वो ठुमरी क्वीन हैं, वो हमारी आपकी गिरिजा देवी (Girija Devi) हैं। संगीत की दुनिया का पूरा चाँद, बनारस घराने का नूर हैं वो…

शास्त्रीय संगीत का स भी नहीं जानती, ठुमरी का ठ और दादरा का द भी नहीं, लेकिन इतना जानती हूँ कि एक आवाज़ मेरे लिए इतना असर रखती है कि मुझे छन्न से तोड़ दे, बिखेर दे रेशा रेशा। या यूँ भी हो कि ज़रा सी तान कतरा-कतरा समेट के जोड़ दे टूटे मन को। शायद ये बात सिर्फ़ मेरी नहीं, सबकी हो सकती है। आवाज़ का असर गहरा होता है। बड़ा आसान होता है आवाज़ की मोहब्बत में पड़ जाना, उसके सम्मोहन में गिरफ़्तार हो जाना।

आज एक ऐसी ही आवाज़, एक ऐसी ही कलाकार का ज़िक्र करने की गुस्ताख़ी कर रही हूँ जिन तक मेरे हाथ नहीं पहुँचते, जिनका नाम लिखते मेरी उँगलियाँ काँप जाती हैं, जो आसमान है… या शायद पूरी आकाशगंगा। वो हरदिल अज़ीज़ हैं, वो ठुमरी क्वीन हैं, वो हमारी आपकी गिरिजा देवी (Girija Devi) हैं। संगीत की दुनिया का पूरा चाँद, बनारस घराने का नूर हैं वो…

जब जब गिरिजा देवी की आवाज़ में बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए  सुनती हूँ तो रो पड़ती हूँ… एक बार नहीं, हर बार। जब उनकी गाई कजरी सुनती हूँ- बरसन लागी बदरिया रूम झूम के… तो चाहे जो भी मौसम हो, मन सावन हो जाता है, भीतर मोर पपीहा बोलने लगते हैं। उफ़्फ़ क्या आवाज़ है, क्या अदायगी। जैसे कानों के रास्ते शहद उड़ेला जा रहा हो, जैसे कोई जादू, कोई तिलिस्म!

लिख रही हूँ उनको सुनते सुनते… भावनाओं में बह जाऊं, कहीं का कहीं लिख डालूं, तो उसका कसूर मेरा नहीं, अप्पा जी का होगा। अच्छा संगीत सुनना हमें निर्मल करता है… रिफाइंड! अच्छी आवाज़ और बेहतरीन अलफ़ाज़ और सधे हुए सुर एक बेहतर इंसान बनाते हैं।

अच्छा संगीत सुनना हमें निर्मल करता है… रिफाइंड! अच्छी आवाज़ और बेहतरीन अलफ़ाज़ और सधे हुए सुर एक बेहतर इंसान बनाते हैं।

छुटपन में सुभद्राकुमारी चौहान की कविता पढ़ी थी- यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे… तब तक कभी देखा नहीं था कदम्ब का पेड़, न देखी थी यमुना और ना ही कृष्ण प्रेम को समझा था। फिर कानों में पड़ी एक ठुमरी – लचक कदमवा की डारी रे सांवरिया… झूला धीरे से झुलाओ बनवारी रे सांवरिया…

क्या कहूँ… क्या लिखूं… कि हर भावना को कागज़ पर उतारने जैसे शब्द नहीं बने हैं।

गिरिजा देवी (Girija Devi) जी पांच साल से संगीत सीखने लगी थीं। प्रसिद्ध सारंगी वादक पंडित सरजु प्रसाद मिश्र उनके पहले गुरु थे जिन्हें वो दादा गुरु कहती थीं। बाद में उन्होंने श्रीचंद मिश्र जी से सीखा। उन्होंने जुट कर साधना की, घंटों रियाज़ किया, पूरी तरह गुरु सेवा में लीन हो गयीं। अप्पाजी से कोई ये पूछे कि इतने छुटपन में कैसे इतना पकड़ पा गयीं? कैसे साध लिया सुरों को, कैसे गा लेती थीं स्टेज पर? तो उनका सरल सा जवाब मिलता है – “मैं तो बस गा देती थी, गुरु का, भगवान् का, पूर्वजों का नाम लेकर… बिना कुछ सोचे… बस गा दिया, सो गा दिया!”

वो कहती हैं – “मैं थोड़ा बिंदास टाइप थी, बचपन से डाकूपंती थी मुझमें… घोड़ा चढ़ना, तैरना, मारपीट करना… पढ़ने का शौक था, इसलिए आत्मविश्वास भी भरपूर!”

उस कच्ची उम्र में जब बच्चियां आँगन में खिलौने खेलना चाहती हैं, पेड़ की छाँव में सहेलियों के कानों में खुसपुसा के बतियाना चाहती हैं, उस उम्र में अपने घर की खिड़की से ताकती गिरिजा जी ये सोचा करती थीं कि बाहर चहकती इन चिड़ियों को, टप टप गिरती बूंदों को संगीत का रूप दे सकती हूँ क्या? ह्रदय में साक्षात सरस्वती विराजती हों तब ही न ऐसा होता होगा?

कानों में अचानक सुन रही हूँ उनकी आवाज़- टप टप गिरती बूंदों सी – “झिर झिर बरसे सावन रस बुंदिया… कि आई गईल ना, अब बरखा बहार।” ये कजरी एक जुगलबंदी है अमज़द अली खान साब के साथ। सरोद की ठोस आवाज़ में घुलती अप्पाजी की तरल तानें… पानी की टपटप के साथ मोर, दादुर, झींगुर सब सुन रही हूँ।

गिरिजा देवी (Girija Devi) को तब ज़्यादा सुना और समझा जब मैं मालिनी अवस्थी के क़रीब आयी। पद्मश्री मालिनी अवस्थी, जिन्होंने लोक संगीत की बागड़ोर अपने हाथों ऐसे सम्हाल रखी है कि लगता है जो कुछ है सब उन्हीं का अपना है। जैसे प्रेमिका का आलिंगन हो… घबरा के, कि कहीं प्रिय छूट न जाए या जैसे माँ ने दुबकाया हो अपने बच्चे को आँचल में। यूँ तो उन्हें कई बार सुना पर जब वो गिरिजा देवी जी की गाई ठुमरी गाती हैं तो जैसे ख़ुद उन जैसी बन जाती हैं, शायद इसलिए कि वो अप्पाजी की प्रिय शिष्या हैं, और प्रिय शायद इसलिए भी क्यूंकि दोनों के मन रेशम से हैं।

यतीन्द्र मिश्र की किताब ‘गिरिजा’ में उन्होंने लिखा है- सिमसिम की जगह, आतिशी शीशे से अप्पा अपनी मायानगरी को देखती हैं, चुपके से नज़रे उतारती हैं, फिर आश्वस्त होती हैं, शीशा छुपा देती हैं कि सबकी आंखों में न दिख जाए और उसे कोई चुरा न ले।

सच… जादूनगरी है अप्पाजी की…. सोच रही हूँ तो लिखते लिखते कलम रुक गयी है, कानों में सुनाई दे रहा है दादरा, अप्पाजी की कशिश भरी आवाज़ में – नयन की मत मारो तलवरिया…

ठुमरी याने वो गायन शैली जिसमें रस, रंग और भाव प्रधान हों, जिसमें छोटी बंदिश हो, ठुमक हो। गिरिजा देवी याने अप्पाजी को हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के बनारस घराने की, ठुमरी की रानी कहा जाता है। ज़ाहिर है ये बहुत बड़ी बात है, लेकिन फिर भी उन्हें किसी एक तरह की गायकी से बांधना भी संभव नहीं। बल्कि लोगों का ये मानना कि बनारस में केवल ठुमरी गाई जाती है ये बात उनको भीतर तेज़ लगी हुई थी इसलिए उन्होंने ख़याल गायकी, धुपद, टप्पा, तराना, सादरा याने चौमुखी गायन को सीखा और आगे बढ़ाया। गिरिजा जी ने पूरे के पूरे शास्त्रीय संगीत को जिया है और कितना भावुक करता है ये जानना कि वो गाते हुए ही ये दुनिया छोड़ना चाहती थीं।

वो कहती थीं – वो किसी भी राग को गाती हैं तो उसका एक स्वरुप उनके सामने आता है और वो खुद रम जाती हैं उसमें… श्रोता भी रम जाते हैं।

“बंसुरिया कैसी बजाई श्याम” सुनिए और खुद ही जान जाइए… रम जाइए।

संगीत रसिकों की चहेती अप्पाजी देश विदेश घूमती रहीं लेकिन लौट आती थीं बनारस… वहीं मिलती थी उन्हें शान्ति। मेहमानों को अपने हाथ से पका कर खिलाने वालीं, मीठे बनारसी पान का बीड़ा बांधने वाली वो क्या सिर्फ़ गायिका थीं? या गुरु या साधिका या एक आत्मीय स्त्री? उनमें शायद ईश्वर बसते थे वो भी कई कई रूप में। अस्सी बरस की होकर भी गुड्डे गुड़ियों को सहेजती वो एक बच्ची थीं, तभी तो कभी उनकी सलेटी आँखों कैसे सौम्यता को झांसा दे कर शरारत छलका देती थीं।

1972 में पद्मश्री, 1989 में पद्मभूषण और वर्ष 2016 में पद्म विभूषण से सम्मानित की गयीं गिरिजा देवी (Girija Devi) के लिए जो सम्मान जो स्नेह उनके सुनने वालों ने दिया, उनके शिष्य शिष्याओं ने दिया वो ज़्यादा मायने रखता था। अपने साथी कलाकारों के वो कितना क़रीब थीं ये बात उनकी जुगलबंदियों से समझ सकते हैं। वो फिर चाहे पंडित रविशंकर हों या भीमसेन जोशी या अमज़द अली खान या ज़ाकिर हुसैन।

पूरबी अंग की गायिका जिनके स्वर चारों दिशाओं को सराबोर करते रहे उनकी आवाज़ कानों में सुनाई देती रहे ये दुआ है अपने लिए और अप्पाजी की दुआ थी कि सभी लड़कियों के भीतर हमेशा उनका बचपन जिंदा रहे… खेलती रहें सब गुड़ियों के साथ! खुश रहें, चहकती रहें, उनकी तरह!

आमीन!

चलते चलते सुनते जाएँ-

“झूला धीरे से झुलाओ बनवारी रे सांवरिया…”

यह आलेख संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका ‘संगना’ में भी प्रकाशित हो चुका है।

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