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ऋषिकेश

अचानक यात्रा पर निकल जाने का सुख मुझे हमेशा ललचाता रहा है| अचानक मतलब एकदम अचानक! जैसे रात को देर से उठने का मन बनाकर सोऊं और सुबह जल्दी आँख खुल जाए तो बैग उठाकर चल पडूँ!

और उस बार ऐसा हुआ भी! बैग में दो जोड़ी कपड़े, एक किताब, लैपटॉप और कुछ ज़रूरत का सामान रख लिया| सुबह के सात बज रहे थे|‘कहाँ जाना है?’ सोचते ही सबसे पहले मन में आया – ऋषिकेश!

ऋषिकेश घुमक्कड़ों का शहर है| कुछ है यहाँ की हवा में जो हर भूले भटके को आसरा देता है|कुछ है जो बार बार लौटकर आने को कहता है…

मैंने सीकर से दिल्ली की बस पकड़ी तब तक करीब आठ बज चुके थे| बस में बैठने के बाद दिल्ली से ऋषिकेश के लिए बस देखी और अपनी पसंद की एक सीट भी ऑनलाइन बुक कर ली| बस तीन बजे की थी| और जब तक मैं उस बस में बैठ न जाऊं, तब तक तय नहीं था कि मैं ठीक समय पर पहुँच पाऊँगी या नहीं! ऋषिकेश की बस छूट गयी तो! लेकिन मुझे इस बारे में ज़रा भी चिंता नहीं थी… अनियोजित/अनप्लांड यात्राओं की सबसे अच्छी बात यही है, ऐसा कुछ नहीं होता जिसके छूटने या न होने का डर रहे|

मैं ठीक समय पर दिल्ली पहुँच गयी और ऋषिकेश की बस भी मिल गयी| ऋषिकेश पहुँचने तक रात के नौ बज चुके थे| नवम्बर का महीना था|नौ बजे तक ही सड़कों से भीड़ कम हो गयी थी| मैंने अक्सर हिल स्टेशन्स पर ये देखा है कि वहाँ रहने वाले लोगों की दिनचर्या थोड़ी सुस्त होती है, महानगरों की भागदौड़ से एकदम विपरीत…

मैंने अपने रहने के लिए हॉस्टल भी इसी सफ़र में बुक कर लिया था| ऋषिकेश में रहने की जगह खोजते समय बहुत सारे विकल्प मिलते हैं| कैम्पिंग, हॉस्टल, होटल्स, होम स्टे… हर बजट के ट्रैवलर को चुनने की आज़ादी मिलती है|

मेरा हॉस्टल तपोवन में था| लक्ष्मण झूला रोड पर तपोवन में आसपास ही बहुत सारे होटल्स, होस्टल्स हैं… ऋषिकेश में रुकने के लिए ये सबसे सही लोकेशन है ऐसा कहा जा सकता है, यहाँ से सब आसपास ही पड़ता है|

हॉस्टल किसी बड़े से घर जैसा था, चारों तरफ कमरे और बीच में बड़ा सा आँगन जहाँ कुछ लोग आग से हाथ सेंक रहे थे| मुझे अपने गाँव के घर की याद आई… मैं बहुत देर तक वहाँ बैठी रही| मुझे हॉस्टल्स की ये बात सबसे अच्छी लगती है, यहाँ आप जब चाहें, जितना चाहें अकेले भी रह सकते हैं और जब चाहे ख़ुद को ढेर सारे लोगों के साथ पा सकते हैं|

दिनभर के सफ़र की थकान इतनी थी कि कमरे में जाते ही सो गयी|

मुझे नदियों, झीलों वाले शहरों का सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों ही बहुत सुंदर लगते हैं| मैं किसी हाल में इन्हें देखने से चूकना नहीं चाहती| सो अगली सुबह जल्दी उठी और निकल पड़ी लक्ष्मण झूले की तरफ़!

तपोवन से लक्ष्मण झूला पैदल चलने पर दस मिनट की दूरी पर है|ऋषिकेश ऐसा शहर है जहाँ सुबह के चार बजे उठकर भी निकला जाए तो सड़कें सूनी नहीं मिलती| आरती में शामिल होने जाते लोग, गायों को चारा खिलाते या यूँ ही सुबह ही सैर पर निकले स्थानीय लोग दिख जाते हैं| और विदेशी पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण रहता है योगा क्लासेज!

कुछ ही दूर चलने के बाद मुझे एकदम सामने उगता हुआ सूरज दिख रहा था| मैं सड़क से उतरकर गंगा नदी के पास चली गयी| सीढ़ियों से नीचे उतरी और पानी में पैर डुबाकर बैठ गयी| जाने कौनसा घाट था ये, बिलकुल भीड़ नहीं थी| बसएक बूढ़ी औरत कबूतरों को दाना चुगा रही थीं| कितना सुंदर, कितना शांत था ये दृश्य! जैसे किसी ने मेरे भीतर की सारी बेचैनियों को सहलाया और फिर अपने साथ ले गया, मुझसे दूर…

कुछ देर बाद मैं हॉस्टल वापिस लौट आई| रास्ते में दूध और ब्रेड ले लिया था|हॉस्टल्स कम ख़र्च में ज़्यादा घूमने वालों के लिए इसलिए भी बेस्ट होते हैं, यहाँ अपना खाना ख़ुद बना सकने की सुविधा रहती है| किसी भी यात्रा में मुख्य ख़र्च तीन ही होते हैं – रहना, खाना और ट्रांसपोर्ट| ट्रांसपोर्ट का ख़र्च कम करने के ज़्यादा ऑप्शन हमारे पास नहीं रहते, पर रहना और खाना कम में हो सके तो पूरा ख़र्च बैलेंस किया जा सकता है|और ऋषिकेश इस समस्या को काफ़ी हद तक हल कर देता है| ऋषिकेश में खाना सस्ता भी है और अच्छा भी|

मैं फिर से घूमने निकली तब तक दोपहर के बारह बज रहे थे| मुझे इतना पता था कि लक्ष्मण झूले के उस पार जाना है… आगे जहाँ तक मन किया वहाँ तक जाउंगी, फिर लौट आउंगी|

अब सड़क पर खूब रौनक थी| करीब पन्द्रह मिनट बाद मैं लक्ष्मण झूले तक पहुँच चुकी थी| मैं दस साल की थी जब पहली बार अपने परिवार के साथ हरिद्वार और फिर ऋषिकेश आई थी| मुझे याद है इस झूले को पार करते हुए मैं बार बार यही पूछ रही थी –‘हम पानी के ऊपर से जा रहे हैं? इतना ऊपर से? इसे झूला क्यूँ बोलते हैं?’

मुझे सच में कुछ समझ सा नहीं आ रहा था… नदी पहली बार देखी थी मैंने! पहाड़ भी! इतनी ख़ुश, इतनी हैरान कि ठीक से बोल भी नहीं पा रही… सोचती कुछ, बोलती कुछ!

मैं जितनी बार ऋषिकेश आई हूँ, हमेशा इस झूले को पार करते हुए वही दस साल की लड़की बन जाती हूँ जिसने अपने जीवन का सबसे बड़ा आश्चर्य अभी अभी देखा है| हम समय को नहीं रोक सकते, लेकिन अगर बचपन के दिनों का वो आश्चर्य अपने अंदर बचाए रखें तो दुनिया बहुत सुंदर लगती है, एकदम नई सी|

लक्ष्मण झूला पार कर मैं उस तरफ़ के एक कैफ़े में जाकर बैठ गयी| कॉफ़ी पी, किताब पढ़ी|आज मेरा मन नहीं था कहीं ओर जाने का| कुछ देर और वहीं बैठी, फिर हॉस्टल आ गयी| आते हुए रास्ते में एक छोटे से restaurant से डोसा खाया|जैसे हर शहर से कुछ न कुछ ख़रीदना, कुछ भी छोटी सी मगर यादगार चीज़ साथ लाना कुछ लोगों का शगल होता है, वैसे ही मेरा शगल है अपना मनपसन्द डोसा हर शहर में चखना! कहने को साउथ इंडियन पकवान है, लेकिन हर शहर में इसका स्वाद बदल जाता है| थोड़ी सी उस शहर की ख़ुशबू इसमें घुल जाती है|

अगले दिन मैं थोड़ी जल्दी हॉस्टल से निकली|लक्ष्मण झूले से थोड़ी दूर आगे चलने पर राम झूला आता है, इस पर खड़े होकर भी जितनी देर गंगा को निहारा जाए, कम है| मैं चलते चलते राम झूले से भी आगे तक आ गयी थी| अब तक जितनी बार ऋषिकेश आई, परमार्थ आश्रम जाना चूकता रहा|इस बार तो मैं चाहती थी कि यहीं रुकूँ| इतनी शान्ति और गंगा घाट… इससे सुंदर जगह कौनसी होगी ऋषिकेश में! लेकिन अगर आप परमार्थ आश्रम में रुकना चाहते हैं तो कुछ दिन पहले बुकिंग कन्फर्म कर लेना ज़रुरी है| कम से कम एक दो दिन पहले|

मैं अचानक इस यात्रा पर निकल आई थी सो आश्रम में रुकना तो इस बार भी नहीं हो पाया|पर इस बार मैंने यहाँ ढेर सारा समय ज़रूर बिताया| अगर आप भी ऋषिकेश जाएँ और परमार्थ आश्रम जाएँ तो यहाँ की कैंटीन के खाने का स्वाद ज़रूर चखें| और अगर चाय प्रेमी हैं तब तो इस जगह से प्यार होना तय है|

चाय नाश्ते के बाद मैं आश्रम के सामने वाले घाट पर आकर बैठ गयी| नवम्बर की गुनगुनी धूप गंगा की लहरों पर चमक रही थी| कितनी सुंदर थी ये दोपहर… अपने आप में सम्पूर्ण| और मुझे ये सिखाती हुई कि सम्पूर्णता मन की एक अवस्था से इतर कुछ नहीं|

थोड़ी देर बाद मैं बीटल्स आश्रम की ओर चल पड़ी… परमार्थ निकेतन से आगे बीटल्स आश्रम की ओर जैसे जैसे बढ़ते हैं सड़क का शोर कम होता जाता है और बहते पानी का संगीत आत्मा में ओर गहरा उतरता हुआ जान पड़ता है| विदेशी पर्यटकों के अलावा बहुत कम लोग बीटल्स आश्रम जाते हैं| लेकिन अगर ऋषिकेश जाना हो तो वहां ज़रूर जाना चाहिए, ये मैंने हर बार महसूस किया है| कौन थे वो लोग जो यहाँ रहते थे, क्या रचते थे, कैसे जीते थे… ये कहीं लिखा हुआ नहीं मिलेगा, ये वहाँ जाकर ही महसूस किया जा सकता है| वो ठंडी गुफ़ाएँ, वो घास से लदी दीवारें, वो रहस्यमयी सा सन्नाटा और सबसे ख़ास वहाँ से शहर को देखना… मैं उस कुर्सी पर जाकर बैठ गयी जहाँ से शहर का एक हिस्सा दिख रहा था… सामने सर्दियों का नरम नारंगी सूरज ढल रहा था, बच्चों की एक टोली नदी में गोते लगा रही थी| पानी के बहने के साथ साथ उनकी आवाज़ें भी सुनाई दे जातीं| कभी किसी मन्दिर के घंटे की आवाज़, तो कभी एकदम सन्नाटा| इतने सुंदर क्षण अपने आप में एक कविता होते हैं| और इन कविताओं को पढ़ने के लिए यात्राओं पर निकलना पड़ता है| भटकना पड़ता है अपरिचित रास्तों पर…

सूरज के एकदम डूबने से पहले मैं वहाँ से चल पड़ी| या यूँ कहूँ गंगा आरती की ख़ुशबू मुझे इतनी दूर से खींच लाई| करीब बीस मिनट का रास्ता पैदल ही तय करके मैं फिर से पहुँच गयी थी परमार्थ आश्रम के सामने घाट पर जहाँ गंगा आरती होती है| पानी पर तैरते दीप, शंखों की आवाज़, आरती की गूँज और नवम्बर की हल्की धुंध में ढकी पहाड़ियाँ… इतनी ज़्यादा ख़ूबसूरती जब सामने होती है, मुझे कुछ समझ सा नहीं आता| जीवन को शुक्रिया कहूँ, अपनी घुमक्कड़ी पर गर्व करूँ या बस मुठ्ठी में भींच लूं इस पल को… कुछ समझ नहीं आता|बस आँखें मूंदती हूँ और वादा करती हूँ ख़ुद से कि यूँ ही भटकती रहूंगी, यूँ ही खोजती रहूंगी अपने हिस्से की सुंदर कविताएँ…

हॉस्टल लौटने के बाद मैंने पैकिंग की और सुबह की वापसी की बस भी बुक कर ली| इस बार लम्बे समय तक रुकने का दिल नहीं किया, लेकिन भरोसा था कि जल्द लौटूंगी| इस बार किसी दूसरे मौसम में ताकि शिवपुरी तक जाऊं और रिवर राफ्टिंग का मज़ा ले सकूं| शायद ट्रैकिंग पर भी निकल जाऊं, शायद इस बार हॉस्टल में नहीं नदी किनारे किसी टेंट में रात बिताऊं! मैं इन सम्भावनाओं को यूँ ही बिखरा हुआ छोड़कर जाना चाहती हूँ, ताकि अगली बार भी ख़ुद को चौंका दूँ|जैसे ये शहर चौंकाता है, हर मौसम में अलग दिखता है…

ऋषिकेश की हर गली में कोई सुंदर सा आश्रम, कोई सुंदर सा मंदिर देखने को मिल जाता है|यही वो शहर है जहाँ से चार धाम की यात्रा शुरू होती है| जो जितना देखना चाहे, ये शहर उसके लिए उतना ही है| जैसा देखना चाहे वैसा ही! सुकून में समय बिताना हो या दोस्तों के साथ मस्ती वाली ट्रिप, ऋषिकेश सबकी उम्मीदों पर खरा उतरता है| लेकिन याद रहे… उम्मीदें लेकर चलना घुमक्कड़ों का काम नहीं!

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