इरशाद कामिल से बातचीत

by Anulata Raj Nair

अल्फ़ाज़ों का एक ख़ज़ाना मेरे पास, और ख़्वाबों की एक पिटारी तेरे पास…

एक रोज़ ये खज़ाना मेरे हाथ लग गया था। बारिश से सराबोर शाम में एक बेहतरीन गीतकार और कवि इरशाद कामिल (Irshad Kamil) ने चंद अशर्फियाँ मेरी हथेली पर धर दीं। उन्हें झीलों की नगरी भोपाल ने एक सम्मान देने के लिए बुलाया और मैं ढेर सारी मोहब्बत बटोर लायी। आधे पौने घंटे किसी ऐसे कलमकार के साथ बिताना जिसका लिखा दिल को गुलाब किये रहता हो… और भला क्या चाहिए।

बरसों से किसी कवि के लिखे को दुहराया जाता रहा है कि – वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान! तो मैंने सवाल किया- कि क्या दुख में होते हैं तब बेहतर गीत लिखे गए? या जब मन खुश खुश रहा हो?

जवाब आया- कैरेक्टर जितना अच्छा होता है उतना अच्छा लिखता हूँ!

तो बकौल इरशाद कामिल- अगर कहानी अच्छी न लगे, करैक्टर अच्छा न लगे तो वो गीत लिखने से इनकार कर देते हैं। याने जितना अच्छा किरदार उतना अच्छा गीत…

आपको लगता है कि गाना इरशाद कामिल (Irshad Kamil) ने लिखा है पर दरअसल जब वो गाने लिखते हैं तो किरदार उनकी कलम थाम लेता है- जैसे जब वी मेट में ‘गीत या आदित्य’, रॉकस्टार में ‘जॉर्डन’ या टाइगर जिंदा है में ‘टाइगर’ या कबीर सिंह में कबीर!

“तो जब मैं उस कैरिक्टर के नज़दीक जाता हूँ, इरशाद से दूर हो जाता हूँ और उतना ही क्रिएटिव होता हूँ…”

“तो फिर इरशाद कहाँ मिलते हैं? ख़ुद इरशाद कामिल?”

मेरे इस सवाल पर गीतकार की आँखें चमक गयीं – वो झट से एक कवि बन गए और बोले – इरशाद कामिल साहित्यिक पत्रिकाओं में मिलते हैं, अपनी किताबों में मिलते हैं, अपनी छोटी मोटी सोशल मीडिया पोस्ट में और अपने गीतों के दूसरे अंतरे में होते हैं। मुझे ये बात बड़ी दिलचस्प लगी और मैंने पूछा कि ऐसा क्यूँ? ऐसा कैसे?

तो इरशाद बोले ऐसा इसलिए कि दूसरे अंतरे तक डायरेक्टर और प्रोड्यूसर की उनसे याने एक गीतकार से जो तवक्को रहती है वो पूरी हो जाती है तब इरशाद कामिल (Irshad Kamil) चुपके से अपनी जगह बना लेते हैं। और वाकई अगर हम उनके गीतों को सुनें तो पायेंगे कि दूसरे अंतरे में गीत की रूह बसती है – जैसे – आधा सा वादा कभी,आधे से ज्यादा कभी, जी चाहे कर लूँ इस तरह वफ़ा का। तोड़े न टूटे कभी…

या फिर वो – मांगा जो मेरा है, जाता क्या तेरा है, मैंने कौन सी तुझसे जन्नत मांग ली …

कितने ही उदाहरण खटखट दे डाले इरशाद ने और मैं नोट करती चली गई। कुछ देर उनकी बातें, उनके कहे अल्फ़ाज़ों को भीतर सोखते हुए फिर मैंने अगला सवाल किया – जो शायद बेहद पत्रकारनुमा सवाल था पर दिल में आया तो पूछ लिया, कि किसी गाने को लिखने के बाद उसके परदे पर पहुँचने के बीच एक शायर का, एक लिरिसिस्ट का कितना ‘say’ कितना अधिकार रहता है।

दो पल को सोच के इरशाद बोले – बिल्कुल रहता है। म्यूचूअल राय होती है सबकी। गाने का चेहरा कैसा होगा, किससे गवाया जाएगा, याने पूरी कास्टिंग…

“पिक्चराईज़ेशन में?” मैंने झट पूछा, मेरी जिज्ञासा बढ़ने लगी थी।

इरशाद मुस्कुराके के बोले –  पिक्चराईज़ेशन में इसलिए नहीं क्योंकि डायरेक्टर की इमैजिनेशन को हम फॉलो करते हैं, लेकिन कई बार जब डायरेक्टर को लगता है कि ये मेरी इमैजिनेशन फॉलो करता-करता मुझसे आगे निकल गया…

“कभी डिसअपॉइन्ट्मन्ट होता है?” मैंने थोड़ा सा हिचकते हुए पूछा!

बिना एक पल सोचे जवाब आया कि डिसअपॉइन्ट्मन्ट मुझे आक्रोश पिक्चर से हुआ, उनके गानों के पिक्चराईज़ेशन से! जबकि गाने अच्छे थे – “सीधे सीधे सारा सौदा सीधा सीधा होना जी”…  मुझे बड़ा अच्छा गाना लगता है, या वो गाना – “न सहद न सीरा न सक्कर, मैंने देख लिया है सब चख कर, तेरे इस्क से मीठा कुछ भी नहीं”, या एक और गाना था- “मन के मत पर मत चलियो ये जीते जी मरवा देगा”। मैंने नोटिस किया कि  शिकायत करते हुए भी इरशाद की आवाज़ एकदम नर्म थी… वही मुलायमियत, वही शाइस्तगी!

अगला सवाल मेरा अपना निजी असंतोष था, वो ये कि फ़िल्म का सबसे प्यारा गाना आजकल सबसे आखिर में क्यूँ? तब जब पब्लिक सिनेमा हॉल से निकलने लगती है। जैसे जब वी मेट का -मौजा ही मौजा…

इरशाद (Irshad Kamil) ने मेरे असंतोष के दर्द पर अपनी सहमति का फ़ाहा रखा और समझाते हुए बोले – डायरेक्टर एक अच्छा टेस्ट छोड़ के फ़िल्म एंड करना चाहता हैं, बस इसलिए!

बातचीत के लंबे दौर में मुझे पता लगा कि एक लीरिसिस्ट के रूप में मशहूर इरशाद पढ़ने के लिए भी बाक़ायदा वक्त निकालते हैं। वो बोले ये वैसा ही है जैसे कोई क्रिकेटर से पूछे कि नेट प्रैक्टिस का टाइम मिलता है? पढ़ना उनकी रूह की खुराक है, जिससे लफ़्ज़ों से दोस्ती बनी रहे, लफ़्ज़ों की खेती सूख न जाए, नया नया सूझता रहे।

“ऊंचे पूरे खूबसूरत इरशाद कामिल ने क्या कभी आइना देख के हीरो बनने का ख्व़ाब देखा था?” ये सवाल सुनते ही उनके गालों के गड्ढे गहरा गए… मुझे लगा हाँ कहेंगे पर उन्होंने कहा – “नहीं, ये ख्व़ाब मैंने कभी नहीं देखा… ये ऐसी ख्वाहिश है जो शायद दुनिया के हर इंसान के भीतर हो, जैसे कोई करोड़पति बनना चाहता हो, कौन नहीं चाहता… लेकिन मैं इतने ज़्यादा लोगों के साथ मुकाबला नहीं कर सकता था। और मैं मुंबई राइटर बनने ही आया था… मुझे थिएटर से प्यार है, एक्टिंग की मैंने, पर मैं गीतकार बनने ही आया था।”

बताइये भला फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े कितने लोग ऐसा ईमानदार जवाब देते होंगे? कोई दिखावा नहीं, ज़रा भी लाग लपेट नहीं… हालाँकि मेरा मानना है कि इरशाद कोशिश करते तो यकीनन – वो मारते एंट्रियाँ तो दर्शकों के दिल पर ट्रिंग ट्रिंग घंटियाँ ज़रूर बजतीं।

इतनी देर की बातचीत में मुझे इरशाद के भीतर का कवि रास आने लगा था।

मैंने पूछा – “अब तो शोहरत है, एक मकाम हासिल है, तो जहां जाना चाहते थे वहाँ पहुँच गए न?”

इरशाद को जैसे पेपर आउट था, सारे सवालों के जवाब एक सेकंड में दे रहे थे वो भी एकदम पक्के जवाब! बोले- “जहां पहुंचना था वहाँ तो पहुँच गया लेकिन यहाँ से कहाँ जाना है ये अभी समझ नहीं आया। लेकिन हाँ जाना तो है! क्यूंकी इरशाद कामिल इतना ही नहीं है ये मुझे पता है। कई और पड़ाव हैं ये यक़ीन है मुझे। बस रास्ता तय करना है…”

एक मक़बूल राइटर बनने के बाद अब इरशाद कामिल एक अलग मंज़िल की तैयारी में हैं – हो सकता है हम जल्द उन्हें किसी फ़िल्म के निर्देशक या स्क्रिप्ट राइटर के रूप में देखें। ढेरों पुरस्कारों और अवार्ड्स अपनी झोली में समेट चुकने वाले, फिल्म संगीत में बेहतरीन कविता को जिंदा रखने वाले इस प्यारी शख्सियत के गानों को आने वाला वक्त ज़रूर गुनगुनाएगा… वक्त की छलनी से छंटनी होने वाले नायाब गीतों को लिखने वाले इरशाद कामिल (Irshad Kamil) से सवालों का सफ़रनामा कुछ यूँ रहा कि- शुरू तुम पे, ख़त्म तुम पे।

आप भी सुनिए ज़मीन से जुड़े, यारों के यार, प्यारे से इंसान की लिखी ये ख़ूबसूरत कविता जो उन्होंने सुनाई अपनी प्यारी आवाज़ में –

वो लड़की न जाने कहाँ होगी

ख़त आधे अधूरे से लिखती थी जो

जैसा चाहूँ मैं वैसा दिखती थी जो

ख़त आधा थमा के हाथों में

कह देती थी, ख़ुद पूरा कर लेना

मेरे दिल में है क्या, तुमको मालूम है

दिल की बातों से कागज़ को भर लेना

बातें मेरी, तुम्हारी जुबां होगी

वो लड़की न जाने कहाँ होगी…