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पधारो म्हारे देस

कितनी मीठी गुज़ारिश है और किसी शहर की गुज़ारिश अगर ठुकराई न जा सके तो वो शहर मेरे ख़याल से उदयपुर है।
झीलों का शहर … नीले पानी में सफ़ेद इमारतों के अक्स वाला शहर … जैसे हौले हौले चांदी घुल रही हो!! भोपाल से उदयपुर तकरीबन 530 किलोमीटर है और अगर अपनी कार से जाएँ तो समय 8 से दस घंटे। भोपाल से इंदौर, देवास, उज्जैन, नागदा, जावरा, मंदसौर और नीमच होते हुए हम उदयपुर पहुंचे। पर मेरे लिए ये ऐसी सड़क यात्रा थी कि वक्त का पता ही नहीं चला। अच्छी चौड़ी सड़कें और रास्ते भर खाने पीने के लिए अच्छे ढाबे या मोटल्स और गाँव के आस पास बिकते मौसमी फल, जिन्हें बेचने वाले बाकायदा काट के नमक मिर्च लगा के खिला रहे थे। रुकते रुकाते चलने में यात्रा का आनंद ही कुछ और है। यात्राएं सिर्फ़ मंज़िल तक पहुँचने का नाम नहीं होता बल्कि वहां पहुँचने तक जो अनुभवों का खज़ाना हाथ लगता है वही है यात्रा, जो दृश्य आँखों ने कैद किये होते हैं वो है यात्रा का हासिल।

उदयपुर में घुसते ही शहर आपका स्वागत करता है नीची नीची फ़ैली पहाड़ियों से…अरावली रेंज, और पधारो म्हारे देस की मीठी धुन गुनगुनाती हवाएं…
हाँ हाँ गुनगुनाती हवाएं…बस सुनने के लिए एक अदद बंजारा मन चाहिए!!
उदयपुर में आपको बड़े स्टार होटल के अलावा तालाब का व्यू देते हुए ढेरों होटल मिल जायेंगे, जिनमें से ज़्यादातर पुरानी हवेलियों को रेनोवेट करके बनाए गए हैं। जहाँ अब भी एक ऐसी महक बसी हुई है जैसी शायद पुरानी किताबों से आती है, और कहानियां भी वैसी ही…जैसी किताबों में होती हैं। राजाओं रानियों की कहानियां, ऊंटों हाथियों की कहानियां, युद्ध की, रणबांकुरों की कहानियां, प्रेम की, ढोला मारू की कहानियां।
यहाँ दो बड़ी झीलें हैं – पिछोला और फतेहसागर, जिनमें शहर की रूह बसती है। इसके अलावा तीन तालाब और हैं जो अपने तीन दिन के प्रवास में मुझे तो नहीं दिखाई दिए। शायद उनके लिए यात्रा को थोड़ा और विस्तार देना होगा।

पर एक बात सच थी कि तालों तलैया के शहर भोपाल से जाने के बाद भी फ़तेह सागर और पिछोला झील की ओर मन झुक ही गया। हर तरह की बोटिंग का आनंद उठाये बिना वहां से लौट आने का तो सवाल ही नहीं….झील का पानी जैसे बाहें पसार कर करीब बुलाता है, और पानी में गोते लगाते काले बतखों के झुण्ड….जब तक आपके कैमरे का लेंस उन्हें फोकस करे तब तक या तो वो डुबकी मार देंगे या पंख पसारे छोटी सी उड़ान भर लेंगे। बोटिंग के समय आस पास पानी को चूमती हवेलियाँ और सिटी पैलेस का अक्स वेनिस में होने का एहसास कराता है।
बेहद रूमानी एहसास है। किसी शहर से इश्क़ करना हो तो उदयपुर से करना।

इस शहर की एक बात जो मुझे सबसे ज़्यादा प्यारी लगी वो ये कि एक अजीब सा कच्चापन शहर में अब भी बाक़ी है….ठेठ राजस्थानी ख़ुशबू, जो महानगर में तब्दील होते जा रहे बाक़ी शहरों से गायब होती जा रही है। संकरी गलियां हैं, जिनमें आपके सामने बड़ी बड़ी विदेशी कारें आकर अटक जायेंगी, लेकिन गलियों में घूमते बाशिंदे ट्रैफिक जैम की स्थिति आने के पहले ही आपको निकलने के रास्ते भी बता देंगे। अगर आप हमारी तरह ख़ुद ड्राइव कर रहे हों तो छोटा मोटा रोमांच याने ज़रा सी टेंशन भी आपको हो सकती है, इसलिए बेहतर है कि पिछोला झील के आस-पास का इलाका ऑटो करके ही घूमा जाय। बेफ़िक्री के बदले थोड़ा बहुत हिचकोले खा भी लिए तो सौदा बुरा नहीं। और अगर पैदल घूम सकें तो इससे अच्छा कुछ नहीं। वैसे भी किसी जगह को जानना है तो वहां ज़्यादा से ज़्यादा पैदल चलना चाहिए, धीमी रफ़्तार…जैसे किसी शायर ने कहा है न कि मज़ा लेना हो पीने का तो कम कम धीरे धीरे
हाँ गलियों के किनारे खुली नालियां बराबर खटकती रहीं, और पैदल चलते वक्त इनका ख़ास ख़याल भी रखा जाय।

अब बात करती हूँ उदयपुर के सबसे ख़ास आकर्षण की, यहाँ के इतिहास और ऐतिहासिक इमारतों की। उदयपुर मेवाड़ शासकों की राजधानी रहा है जिसे सिसोदिया राजवंश के राणा उदय सिंह ने स्थापित किया था।
खूबसूरत हवेलियाँ इस शहर के इतिहास की गवाह हैं….मोटी मोटी दीवारों,छतरियों और कंगूरों वाले छज्जों के बीच न जाने कितनी कहानियाँ दबी हैं…..कितने किस्से हवाओं के साथ सरसराते गुज़र जाते हैं।

एक शाम हमने बिताई बागोर की हवेली में। पिछोला झील के गंगोरी घाट से लगी इस हवेली में 138 कमरे हैं और सतरंगी कांच से जड़ी खिड़कियाँ।
यहाँ शाम को होने वाले कार्यक्रम ‘धरोहर’ ने हमें राजस्थानी रंग से तरबतर कर दिया । ख़ास तौर पर 70 बरस की जयश्री रॉय का भवाई नृत्य…..सिर के ऊपर मटके रख कर नाचना, वो भी इस उम्र में….कमाल था बिलकुल !!
साथ में थाली और ढोल की थाप……आह !! कानों में अब तक बाक़ी है !! अगर संगीत की तकनीकियों में दिलचस्पी है तो कलाकारों द्वारा बजाये जा रहे वाद्य यंत्रों पर भी गौर ज़रूर फरमाएं।
और हाँ कार्यक्रम शुरू होने के पहले घाट पर बैठे कलाकार से वहां के लोकल वाद्ययंत्र रावनहत्ता पर केसरिया बालम की धुन सुनना मत भूलिए। और वही आपको इस वाद्ययंत्र की कहानी भी सुना देंगे। और आप दिलचस्पी दिखाएँगे तो आपको ख़रीदने का ऑफर भी दे डालेंगे। दाम की कहानी रहने देते हैं और चलते हैं अगले पड़ाव पर।
ऐतिहासिक नगरी उदयपुर में अगर शाही जगमग देखनी हो तो फ़तेह प्रकाश पैलेस की क्रिस्टल गैलेरी में ज़रूर जाइए। महाराजा सज्जन सिंह ने बर्मिंघम से ख़ासतौर पर क्रिस्टल के सामान मंगाए थे और जिन्हें आप उसी शानोशौकत के साथ आज भी देख सकते हैं। क्या चमक…क्या दिखावा…सच कहूँ अपने आप को किसी शाही परिवार से न होने का दुःख ज़रा सा साल गया, मैं ही नहीं किसी को भी ऐसा महसूस हो सकता है। क्रिस्टल के पलंग, हुक्के, डिनर सेट, कुर्सियां,फ़ानूस और तो और कीमती रत्नों से जड़ा कालीन भी….याने कल्पना से परे,कुछ परियों की कथाओं जैसा। यहाँ हमने ऑडियो गाइड लिया और एकदम शांत गैलेरी में कानों में लगे हेडफोंस के जरिये सब कुछ विस्तार से पता लगता गया। अद्भुत अनुभव था वो।

महलों की फ़ेहरिस्त में एक नाम और है- मानसून पैलेस। जो बारिश के मौसम में पहाड़ियों और बादलों को निहारने के लिए बनवाया गया था। वहां से ढलते सूरज का अक्स आँखों में सहेज लाई हूँ….

कुदरत ने राजस्थान में पानी की कमी कर दी इसलिए फूलों के रंगों से मरहूम प्रदेश के लोगों ने रंगों को अपनी ज़िन्दगी में इस कदर शामिल कर लिया कि चारों ओर इन्द्रधनुषी नज़ारा दिखाई देता है….
सर पर बंधी लहरदार पगड़ियाँ हों या औरतों की पोशाकें, चटक रंग यहाँ की पहचान हैं।
जैसा चटक रंग वैसा ही चटक स्वाद यहाँ के खाने का है। घी से तर और खड़ी लाल मिर्च का तड़का….लिखते हुए ही मुंह में पानी भर रहा है ।

झीलों,पहाड़ों और रेत के टीलों से आती किसी पुकार के इंतज़ार में हूँ… कि पधारो म्हारे देस…
और दोबारा चल पडूं …
ढेर सारे लहरिया, बांधनी,मोठना,पीला साड़ी के अलावा कुछ यादें भी भर लाई हूँ ।

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