Neelesh Misra Logo

मेरे बचपन का कहानीवाला

कहानीवाला (Kahaniwala) नौ बजे कहानी कहना शुरू करता। गाँव के बीचोंबीच वाली चौकी पर बैठक जमती। आसपास पानी छिड़का जाता, फिर लगती कतार से चारपाइयाँ और मूढ़े।

उनके आने का कोई दिन तय नहीं था। काँधे पर झोला टाँगे वो किसी भी रुत, किसी भी दिन आ सकते थे। वो बही भाट थे, उन्हें सब पता होता था। जैसे दादाजी के दादाजी के दादाजी का नाम क्या था, उनकी शादी कब हुई, बारात कहाँ गयी, कब किसी बच्चे का जन्म हुआ सब कुछ। पीढ़ियों से वो यही काम करते आये थे। घर घर जाकर सबके नाम अपनी भही में दर्ज करते और उन्हें उनके पुरखों के नाम, उनके किये भले काम गा गाकर सुनाते।

कैसे कोई सबके हिस्से का सहेजने की जिम्मेदारी इतनी निष्ठा से निभा सकता है?

वो जब भी आते मैं दादाजी की ऊँगली पकड़े उन्हें देखती रहती। सोचती रहती कि इस लम्बी सी नोटबुक (बही) में लिखी बातें आख़िर उन्हें पता कैसे चली होंगी? कई कई साल बाद क्या वो दादाजी का नाम भी बतायेंगे? ये भी कि मैं और दादाजी सुबह जब सैर करने खेत तक जाते हैं तो देरी से इसलिए लौटते हैं क्योंकि केर के पीछे नन्हे कुत्ते देखने चले जाते हैं? ये तो सिर्फ़ मेरा और दादाजी के बीच का राज था। मैं मुंह पर हाथ रखकर अपनी हंसी दबा लेती, बही भाट  पुरखों के नाम वाली पूरी सूची गाकर सुनाने के बाद चले जाते।

सर्दी के दिनों में वो अक्सर दोपहर में आते थे, लेकिन गर्मी के दिनों में सुबह या शाम को।

गर्मी के दिनों की अपनी कोई पहचान नहीं थी। उन्हें पहचानने के लिए बहुत सी चीज़ों का सहारा लेना पड़ता था। जैसे – कुल्फ़ी वाले की साईकिल की घंटी, टीवी कमरे से निकालकर आँगन में रखकर देखा जाना, सुबह होते ही झूले की होड़, चूल्हे पर चढ़ी ‘राबड़ी’ की ख़ुशबू, तालाब पर नहाने जाते मवेशियों की कतार, मोर की कूक और दोपहर की नींद। इनमें से कोई एक भी ग़ायब रहे तो ‘गर्मी का दिन’ अधूरा सा जान पड़ता था। और जब कुछ नया जुड़ जाए तब?

‘कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई

बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी चुनी खाई।’

मंदिर के स्पीकर में बजते कबीर के दोहे रुकते, एक ज़रुरी घोषणा होती। घोषणा कि आज शाम को कहानीवाला (Kahaniwala) गाँव में आ रहा है। बस इतना सुनने की देर होती थी कि सबके पैरों में इंतज़ार बंध जाता और आँखों में उत्साह!

कहानीवाला (Kahaniwala)! उसको सब इसी नाम से बुलाते थे। दादाजी को ज़रूर उसका असली नाम भी पता होगा, पर मैंने तब तक उनसे पूछा नहीं था।

वैसे तो मैं रोज़ दादाजी से कहानी सुनकर ही सोती थी लेकिन कहानीवाले (Kahaniwala) के आने का चाव मुझे भी चढ़ता और दादाजी को भी! मुझे इतनी सारी कहानियाँ सुनाने वाले दादाजी भी कहानी सुनना चाहते हैं, मुझे ये हमेशा बड़ा हैरान करता।

हैरान तो मुझे वो कहानीवाला भी करता। वो हर साल आता था। उसके पास बहुत सारी कहानियाँ थीं। इतनी कि लिखने बैठो कागज़ कम पड़ जाए, सुनने बैठो तो जीवन। एक कहानी ख़त्म होते होते आधी रात बीत जाती थी। बच्चे गोदियों में सर टिकाये, तारे देखते हुए सो जाते थे। सुबह उठते तो वो जो जा चुका होता।

दादाजी बताते थे कि पहले वो यूँ एक ही दिन में नहीं जाता था, कई कई दिनों तक गाँव में ही आकर रहता। गर्मियों के ये ख़ाली दिन उसके आने के लिए चुने गये थे। खेतों में काम न होने के इन दिनों में वो सबका मनोरंजन करने की ज़िम्मेदारी उठाये था और उससे पहले उसके पुरखे। वो दिन जब न गाँव में रेडियो थे, ना बिजली, टीवी का तो किसी ने नाम भी नहीं सुना होगा। ऐसे में सब सुनते थे कहानियाँ!

कहानीवाला (Kahaniwala) नौ बजे कहानी कहना शुरू करता। गाँव के बीचोंबीच वाली चौकी पर बैठक जमती। आसपास पानी छिड़का जाता, फिर लगती कतार से चारपाइयाँ और मूढ़े। जब सब जमा हो जाते कहानीवाला कमरे से निकलकर आता, मुझे रामलीला वाले दिन याद आ जाते, जोकर की टोपी भी! कहानीवाला बीच की चारपाई पर पालथी मारकर बैठता, अपना गला साफ़ करता और शुरू करता –

“खुराफ़ात रे खुराफात,

माछर रो धक्को, कीड़ी री लात

राम जी बचावै तो बच्च, नहीं बच्च न कोई बात!”

हम बच्चे जोर से हँसते। दादाजी हम सबकी तरफ देखते और हमें चुप करवा देते। वो पूरी कहानी बहुत ध्यान से सुनते थे, कहानी से पहले का ये गीत भी।

“बातां रा हुंकारा लागे, फ़ौज में नगारा बाजे

सुतयोड़ा री पागड़ी, जाग्तोड़ा ले भाजे

मिरिय मं माओ, पहलां कोई तम्बाकुड़ी रो पान कराओ

फेर कोई बात कुहाओ”

हर कहानी ये कहने के बाद ही शुरू होती थी। यहाँ तक कि घर पर जब दादाजी मुझे कहानी सुनाते वो भी यहीं से शुरू करते। हाँ आख़िरी पंक्ति कुछ यूँ होती – “पहलां कोई आमरस रो पान कराओ, फेर कोई बात कुहाओ”

याने पहले आमरस पिलाओ, फिर कहानी सुनने को मिलेगी। मैं तब भी खूब हंसती थी।

कहानीवाले (Kahaniwala) की कहानियाँ बहुत अलग होती थी। कभी चार बहनों की कहानी जो दूर रेगिस्तान में चार अलग अलग गाँवों में ब्याही गयी थीं, कभी उस राजा की जो अँधेरी बरसती रात में शेर को घोड़ा समझकर उस पर सवार हो गया था और फिर भटक गया था सालों के लिए घने जंगलों में। उसकी कहानियों में सिर्फ़ रेगिस्तान ही नहीं, पहाड़ भी होते थे – बर्फ़ से ढके हुए, किसी समन्दर को घेरकर खड़े हुए। ठुड्डी पर हाथ टिकाये, गाँव वाले हैरानी से उसे सुनते रहते। वो हर साल अपने साथ थोड़ी सी वो दुनिया लाता था जो गाँव वालों ने नहीं देखी थी। अपनी ऊँची, साफ़ आवाज़ में वो कहानी कहता तो वो नयी दुनिया हमेशा के लिए उस रेगिस्तानी गाँव में रुक जाती।

मैं कभी पूरी कहानी नहीं सुन पाई। हमेशा आधी कहानी पर ही नींद आ जाती और मुझे पता भी न चलता। मुझे नहीं पता वो चार बहनें कभी मिली या नहीं? राजा घर लौटा या नहीं? मैंने कभी दादाजी से भी नहीं पूछा। वो बड़े संतोषी दिन थे, आधा अधूरा जानकर भी ख़ुश रहने के दिन।

कहानीवाला अगली सुबह लौट जाता। गर्मी के दिन फिर वैसे ही हो जाते – कुल्फ़ी, क्रिकेट, तालाब में नहाते मवेशी, कबीर के दोहे, दादाजी की कहानी और अगले साल कहानीवाले के आने का इंतज़ार!

साल बीतते रहे, कहानीवाला (Kahaniwala) आता रहा। मैं आधी से थोड़ी सी ज़्यादा कहानी सुनने लगी थी।

उन गर्मियों में कहानीवाला आया तो उतने लोग जमा नहीं हुए। मैं और दादाजी उस बार भी नहीं चूके थे। उस बार उसने बहुत छोटी कहानी सुनाई थी। बाजरे में बैठकर चिड़िया उड़ाते एक किसान की कहानी जो एक दिन ख़ुद चिड़िया बन गया था।

वो पहली कहानी थी जो मैंने पूरी सुनी। वो आख़िरी कहानी थी जो मैंने उस कहानीवाले से सुनी।

अगले साल कहानीवाला नहीं आया, उससे अगले साल भी नहीं। गर्मियों के दिनों की जो पहचान उसके आने से होती थी, वहां अब उसका ‘न आना’ टंगा रहता। एक खालीपन, कभी न भरने वाला। लेकिन ऐसा कि किसी पर उसका ध्यान भी न जाए। वो क्यों नहीं आया, ये किसी को नहीं पता था। किसी ने पता किया भी नहीं।

हमें हमेशा लगता है कि हमने विकल्प खोज लिया है और इसलिए हम निश्चिन्त हो जाते हैं। ये निश्चिंतता सबसे बड़ा छलावा है, ये बहुत देर से पता चलता है। कई बार तो पता ही नहीं चलता।

मुझे उस कहानीवाले की कमी खूब ख़ली। मैं चाहती थी वो आये, वो कहानियाँ सुनाये। जैसे दादाजी के समय में बहुत सारे दिनों के लिए गाँव में आकर रुकता था, वैसे ही अब भी रुके। लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकती थी।

साझा दुखों की सबसे क्रूर बात यही है, कोई एक जी भरकर रो भी नहीं सकता।

वो सालों बाद की सर्दियों की दोपहर थी। सालों बाद दरवाज़े पर खड़े बही भाट  लम्बी सूची पढ़कर सुना रहे थे। वो सब सहेज लेते थे। शुक्र है कि कोई तो सब सहेज लेता था। पर सब कहने पर भी तो कुछ चूक ही जाता है। जैसे गर्मी की वो शामें, कहानीवाले के आने की शामें। मुझे वो इतने सारे गर्म दिनों से बिलकुल अलग नज़र आती हैं, जैसे पूरी किताब पढ़ने के बाद कुछ कुछ पन्ने मोड़कर रखे गये हों।

साझा दुखों की सबसे क्रूर बात यही है, कोई एक जी भरकर रो भी नहीं सकता।

“दादाजी! कहानीवाले का नाम क्या था?” मैंने पूछा।

दादाजी झट से बोले – “नज़ीर!”

जैसे वो भी उसी के बारे में सोच रहे थे।

“राजा घर लौट आया था क्या?” मैंने फिर एक सवाल पूछा।

दादाजी बोले आज वही कहानी सुनायेंगे।

दरवाज़े पर बैठा बही भाट मुस्कुरा दिया। अपना झोला टांगा और चल गया। हम उसे गली के आख़िरी छोर तक देखते रहे… जाने का दुःख कम हो जाता है, अगर किसी को जाते हुए देख लिया जाए।

More Posts
Aranmula Mirror from Kerala
Vishu Festival: केरला की यादों का ख़ूबसूरत आईना, आरनमुला कन्नाडी
Anulata Raj Nair विशु (Vishu ) का दिन था। सुबह के पांच भी नहीं बजे ...
Neelesh-Misra-climaye-vhal-phir-sajaayein-lyrics
A Song with Ricky Kej for COP28 and the Climate Connection Launch by Gaon Connection: Climate Change is personal
Today is a special day for me! Not only because it\’s the 11th anniversary of ...
Humbled To Be Felicitated at IFFI Goa — with my daughter clapping in the audience!
Neelesh Misra gets honoured at IFFI Goa and he shares how the day became special with his daughter clapping for him in the audience.
Conversation with the cast of Netflix series `The Railway Men’: What Makes People Do Good?
Neelesh Misra recently interviewed the Netflix\'s show The Railway Men\'s cast in Mumbau and in this post he shares his experience.
Neelesh-Misra-Live-Show-Tour-2023-2024
I Am Coming To Meet You. A National Storytelling Tour Starts Dec. 16
I am about to launch a national Live storytelling tour, and I shall meet many ...
Scroll to Top